Atmadharma magazine - Ank 149
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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ज्ञान अने आनंदथी भरेलो मोटो चैतन्यसमुद्र छे; पण शरीर ते हुं ने राग जेटलो ज हुं एवी भ्रमणाने लीधे
अज्ञानीने ते चैतन्यसमुद्र देखातो नथी. जो ज्ञानचक्षु उघाडीने अंतरमां देखे तो भगवानआत्मा देहथी ने रागथी
पार, ज्ञान अने आनंदथी भरेलो चैतन्यसमुद्र ऊछळी रह्यो छे–ते देखाय. पोतानी चैतन्यशक्तिनुं अवलंबन लीधा
सिवाय, भवदुःखथी छूटवानो बीजो कोई उपाय नथी.
हे भाई, जो तारे अनंतकाळना आ परिभ्रमणनो अंत लाववो होय,......ने आत्मानी अतीन्द्रिय शांतिनो
अनुभव करवो होय तो तेनी आ रीत छे के सत्समार्गे वारंवार आत्मस्वभावनुं श्रवण–मनन करीने, अंतरंग
रुचिथी तेनो निर्णय कर, तेनो परम महिमा लक्षमां ले....तेनी ज भावना भाव. तारा ज्ञानानंदस्वरूपनी तें कदी
संभाळ नथी करी तेथी तने कठण लागे छे, पण जो सत्समागमे तेनो यथार्थ प्रयत्न कर तो आत्मानी अपूर्व
ओळखाण थया विना रहे नहि, पोताना स्वभावनी प्राप्ति करवी तो सुगम छे.
आत्माना स्वभावनुं वारंवार श्रवण–मनन करवुं तेमां कांई पुनरुक्तिदोष नथी. जेने जेनी रुचि होय ते तेनी
वारंवार भावना भावे छे. ‘भावनाथी भवन थाय छे’ एटले के शुद्धआत्मस्वभावनी वारंवार भावना करवाथी
भवन–परिणमन थई जाय छे. माटे ज्यां सुधी आत्मानी यथार्थ श्रद्धा–ज्ञान ने अनुभव न थाय त्यां सुधी सत्समागमे
वारंवार प्रीतिपूर्वक तेनुं श्रवण–मनन अने भावना कर्या ज करवी. आत्मानी प्रभुता पोतामां ज भरी छे, पण पोते
पोताना स्वभावसन्मुख थईने तेनी द्रष्टि करतो नथी तेथी भवभ्रमण थाय छे. जो अंर्तद्रष्टि करीने आत्मानी प्रभुतानुं
अवलोकन करे तो अल्पकाळमां भवभ्रमणनो नाश थई जाय छे–आ भवभ्रमणना नाशनी रीत छे.
– पू. गुरुदेवना विहारना प्रवचनोमांथी
‘आत्मानुं शरीर!’
आ बाह्य शरीर अने कर्म ते तो द्रव्य शरीर छे ते जड छे. अंदरमां “ देह ते हुं, राग ते
हुं” एवो भाव ते विकाररूपी भावशरीर छे. अने देहथी पार–रागथी पार ज्ञानानंदस्वभाव छे
ते आत्मानुं कायमी अतीन्द्रिय आनंदशरीर छे.
चैतन्यमय आनंदशरीर अनादिअनंत टकनार छे, ते आनंदशरीरने लक्षमां लईने ज्यां
लीन थयो त्यां, विकारीभावरूपी भावशरीर तेमज जडना संयोगरूपी अचेतनशरीर–ए बंने
शरीरनो संबंध छूटीने आत्मा अतीन्द्रिय सिद्ध परमात्मा बनी जाय छे. त्यां ज्ञान–अने
अतीन्द्रिय आनंदरूपी शरीर रही जाय छे......ते ज आत्मानुं खरुं शरीर छे. आत्मानुं शरीर
कहेवाय के जे कदी आत्माथी जुदुं न पडे. आत्मामां जे केवळज्ञान ने पूर्ण आनंद प्रगटया ते कदी
आत्माथी जुदा नथी पडता, तेथी ते ज्ञान ने आनंद ज आत्मानुं खरुं शरीर छे. आ बहारना
जड शरीरनो संयोग तो अनंतवार आव्यो ने अनंतवार छूटयो. ते शरीर आत्मानुं छे ज नहि,
ने अंदर रागादि भावरूप शरीर पण छूटी जाय छे, ते पण आत्मानुं खरुं शरीर नथी. असंख्य
प्रदेशे ज्ञान ने आनंदस्वभावथी भरेलुं आत्मानुं शरीर छे...माटे हे भाई, आ जड शरीर साथेनी
ने रागादि साथेनी एकताबुद्धि छोड, ने अंतरमां तारुं ज्ञान–आनंदमय शरीर छे तेनी साथे
एकता कर, जेथी आ जड देहनो संबंध छूटी जाय.....ने कदी न छूटे एवा अतीन्द्रिय केवळज्ञानमय
चैतन्य देहनी प्राप्ति थाय.
(–व्याख्यानमांथी)
ः ८८ः आत्मधर्मः १४९