सर्वज्ञता हती ते प्रगटी.
त्रिकाळी सुख गुण रहेलो छे. ज्यां क्रोध थाय छे त्यां ज त्रिकाळी क्षमा
गुण भरेलो छे, आ रीते क्षणिक दोष अने त्रिकाळी गुण बंने एक साथे
वर्ती रह्यां छे. तेमां गुणस्वभावने ओळखीने तेनुं अवलंबन ल्ये तो दोष
टळी जाय ने गुणनी निर्दोष दशा प्रगटे.
सर्वज्ञपणुं नहि आवे. आत्मा पोते ज्ञानस्वभाव छे, तेना स्वभावमां परिपूर्ण सुख अने सर्वज्ञतानुं सामर्थ्य भर्युं
छे, तेमांथी ज सुख अने सर्वज्ञता प्रगटे छे. माटे आत्माना स्वभावसामर्थ्यनी ओळखाण करीने तेनुं अवलंबन लेवुं
ते हितनो उपाय छे.
छे तेमां पण मारुं हित नथी. अंतरमां मारा ज्ञानस्वभावमां ज मारुं सुख छे, ए स्वभावनुं अवलंबन लउं तेमां ज
मारुं हित छे. परमां सुख मानीने अत्यार सुधी हुं रखडयो ने में मारुं अहित कर्युं; परमां मारुं सुख नथी. मारुं
चैतन्यद्रव्य ज सुखस्वभावथी भरेलुं छे. वर्तमान क्षणिक पर्यायमां अल्पज्ञता अने विकार छे, पण मारा द्रव्य–
स्वभावमां ते विकारनो अभाव छे, परिपूर्ण केवळज्ञान थवानी ताकात मारा द्रव्यस्वभावमां अत्यारे पण पडी छे.–
आम शुद्ध द्रव्यस्वभावनी सन्मुख थईने आत्माना स्वरूपनी समजण करवी ते ज पहेलां करवा जेवुं छे, त्यांथी ज
धर्मनी शरूआत थाय
फागणः २४८२