Atmadharma magazine - Ank 149
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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आनंदना निधान अंतरमां ज छे
श्रीमद् राजचंद्र नानी वयमां कहे छे के –
‘सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो,
क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो! राची रहो?’
–बहारना ईंद्रियविषयोमां सुख मानतां अंतरना स्वभावनुं अतीन्द्रियसुख चूकी जवाय छे. बहारमां मारुं
सुख नथी, मारुं सुख तो मारा अंर्तस्वभावमां ज छे–एम विश्वास करीने अंतरना चिदानंदतत्त्वनुं मनन करो. एक
वार आवी ओळखाण करीने आत्मानां परम सत्यनो भणकार तो लावो. चैतन्यतत्त्वना भणकार विना बहारमां
सुख मानी मानीने अनादिकाळथी जीव क्षणे क्षणे भावमरण करी रह्यो छे. जो एक क्षण पण आत्मानुं सत्यस्वरूप
समजे तो भावमरण टळे ने अल्पकाळमां मुक्ति थाय. अहो! मारी चीज तो अंतरना ज्ञानस्वभावथी भरेली छे,
आनंदना निधान मारामां ज भर्यां छे, पण तेने चूकीने अत्यार सुधी हुं बहार रखडयो, छतां मारां चैतन्यनिधान
एवां ने एवा परिपूर्ण छे–आम अंर्तवस्तुनो स्वीकार करवो ने तेनो महिमा करीने स्वसन्मुख थवुं ते अपूर्व
आत्मकल्याणनुं मूळियुं छे.
जीवनुं ध्येय
दोष टाळीने निर्दोषता प्रगट करवी छे, तो तेनो अर्थ ए थयो के दोष वखते पण जीवना मूळ स्वभावमां
निर्दोषता पडी छे. जो स्वभावमां परिपूर्ण निर्दोषतानुं सामर्थ्य नहि होय तो पर्यायमां निर्दोषता आवशे कयांथी?
दोष वखते ते दोष जेटलुं ज आत्मानुं स्वरूप नथी, पण दोषना अभावरूप आखुं द्रव्यस्वरूप छे. ए ज प्रमाणे
अल्पज्ञता वखते ते अल्पज्ञता जेटलो ज आत्मा नथी पण द्रव्यमां सर्वज्ञतानुं सामर्थ्य पडयुं छे. पर्यायमां व्यक्त
भले ओछुं होय पण द्रव्यस्वभावमां परिपूर्ण सामर्थ्य छे. माटे पर्यायबुद्धि छोडीने परिपूर्ण द्रव्यस्वभावनी द्रष्टि
करवी ते मनुष्यजीवननुं ध्येय छे. जेने आत्मानी समजण करवी होय ने हित करवुं होय तेणे आवा ध्येयने लक्षमां
राखीने जीवन जीववुं. भले अमुक हदना रागादि थता होय, पण ते मारुं ध्येय नथी ने तेमां मारुं हित नथी–एम
समजवुं.
ज्यां दोष थाय छे त्यां ज गुण भर्यां छे.
परथी भिन्न ने पुण्य–पाप वगरना निरुपाधिक चैतन्यतत्त्वने जीवे कदी ध्येयरूप बनाव्युं नथी ने तेनी रुचि
पण करी नथी, विकारनी रुचि करीने तेने ज ध्येय बनाव्युं छे. क्षणिक विकार पाछळ ते ज वखते शक्तिरूपे त्रिकाळी
निर्विकार स्वभाव आत्मामां पडयो छे, पण जीवने पोताना स्वभावनो भरोसो बेसतो नथी. लाकडामां क्रोध नथी
थतो, ने तेनामां क्षमागुण पण नथी; जीवनी अवस्थामां क्रोध थाय छे तो तेनी पाछळ त्रिकाळी क्षमागुण पडयो छे.
ज्यां गुण होय त्यां तेनी विकृतिथी दोष थाय. दोष क्षणिक छे ने गुण त्रिकाळ छे. ज्यां दोष थाय छे त्यां ते क्षणिक
दोषनी पाछळ त्रिकाळ निर्दोष गुण रहेलो छे. जेम के ज्यां क्रोध थाय छे त्यां ज त्रिकाळी क्षमागुण भर्यो छे, ज्यां
दुःख छे त्यां ज त्रिकाळी सुखगुण पडयो छे, ज्यां अल्पज्ञता छे त्यां ज स्वभावमां सर्वज्ञतानुं सामर्थ्य पडयुं छे. आ
रीते क्षणिक दोष अने त्रिकाळी गुण बंने एक साथे ज वर्ती रह्या छे पण तेमां गुणने भूलीने अज्ञानी पोताने दोष
जेटलो ज माने छे, एटले तेना दोष कोना अवलंबने टळे? क्षणिक विकृति जेटलो हुं नहि पण त्रिकाळी स्वभाव ते हुं
–एवुं भान करीने स्वभावनुं अवलंबन करे तो दोष टळीने गुणनी निर्दोषदशा प्रगटे. एनुं नाम धर्म छे.
कर्म रखडावे नहि ने भगवान तारे नहि.
आत्मा पोताना स्वभावथी परिपूर्ण छे ने परथी शून्य छे; कोई बीजो तेने रखडावनार नथी ने कोई बीजो
तेने तारनार नथी. स्वभावने भूलीने पोते रखडे छे. अने ‘हुं मारा स्वभावथी ज परिपूर्ण छुं’ एवी प्रतीत करीने
तेमां एकाग्र थवुं ते तरवानो उपाय छे. कर्म मने रखडावे ने भगवान तारे–एम अज्ञानी माने छे. पण भाई!
कर्मनो तो तारा आत्मामां अभाव छे, तो ते तने कई रीते रखडावे? कर्मे तने नथी रखडाव्यो पण तुं तारी भूले ज
रखडयो छे. अने भगवान कोईने तारता नथी. जो भगवान तने तारता होय तो अत्यार सुधी केम न तार्यो?
खरेखर भगवान मने तारनार छे
ः ९२ः
आत्मधर्मः १४९