मोटो देव थयो छतां तारुं आ भवभ्रमण तो एम ने एम ऊभुं ज रह्युं!
–माटे समज के धर्म चीज कंईक जुदी छे,–के जेनुं तें कदी एक क्षण पण
हजी सेवन नथी कर्युं. ज्यां सुधी शुद्ध आत्माने श्रद्धा–ज्ञानमां न ल्ये त्यां
सुधी आ शरम भरेला जन्ममरणथी छूटकारो न थाय.
पुण्यने जे धर्म माने छे ते केवळ भोगने ज ईच्छे छे, अहो! जेने धर्मनी
भावना होय.....मोक्षनी भावना होय ते जीवो आत्माना स्वभावनुं
निरीक्षण करो.....आत्मामां अंर्तअवलोकन करो, ते ज मोक्षनुं दातार छे;
आत्माना अंर्त अवलोकन विना भवनो अंत आवतो नथी. अरे,
मनुष्यअवतार पामीने जो भवना अंतना भणकार आत्मामां न जगाडया
तो जीवन शुं कामनुं?
रहे नहि, ए ज जिनशासननो महिमा छे. माटे कह्युं के–भवनुं जे मंथन करी नाखे–भवनो नाश करी नांखे एवो
जैनधर्म छे, तेने हे जीव! तुं भाव! भवनो नाश करवा माटे तुं आवा धर्मने भाव. जुओ, आ भवरोगनी दवा.
सम्यग्दर्शनादि शुद्धभाव प्रगट कर्या विना शुभ–अशुभ भाव वडे चार गतिना भवमां अवतार करी रह्यो छे, पण