Atmadharma magazine - Ank 150
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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जिनशासननो महिमा []
(श्री भावप्राभृत गा. ८२ उपरना प्रवचनोमांथी)
लौकिकजनो पुण्यने धर्म माने छे, पण ते धर्म छे नहीं. अरे जीव!
शुं तें पुण्य अनादिकाळमां नथी कर्यां? अनंतवार पुण्य करीने स्वर्गनो
मोटो देव थयो छतां तारुं आ भवभ्रमण तो एम ने एम ऊभुं ज रह्युं!
–माटे समज के धर्म चीज कंईक जुदी छे,–के जेनुं तें कदी एक क्षण पण
हजी सेवन नथी कर्युं. ज्यां सुधी शुद्ध आत्माने श्रद्धा–ज्ञानमां न ल्ये त्यां
सुधी आ शरम भरेला जन्ममरणथी छूटकारो न थाय.
जुओ, आ चैतन्यना आनंदनी मस्तीमां झूलता ने वनमां वसता
वीतरागी संतोनी वाणी छे. जैनधर्ममां तो भगवाने एम कह्युं छे के
पुण्यने जे धर्म माने छे ते केवळ भोगने ज ईच्छे छे, अहो! जेने धर्मनी
भावना होय.....मोक्षनी भावना होय ते जीवो आत्माना स्वभावनुं
निरीक्षण करो.....आत्मामां अंर्तअवलोकन करो, ते ज मोक्षनुं दातार छे;
आत्माना अंर्त अवलोकन विना भवनो अंत आवतो नथी. अरे,
मनुष्यअवतार पामीने जो भवना अंतना भणकार आत्मामां न जगाडया
तो जीवन शुं कामनुं?
जिनशासनमां धर्म शुं छे, अथवा केवा भावथी जिनशासननो महिमा छे ते वात चाले छे. आत्मा ज्ञान–
आनंदस्वभावनी मूर्ति छे, तेनी श्रद्धा–ज्ञान ने रमणतारूप शुद्धभाव ते धर्म छे, अने ते धर्म ग्रह्या पछी भवभ्रमण
रहे नहि, ए ज जिनशासननो महिमा छे. माटे कह्युं के–भवनुं जे मंथन करी नाखे–भवनो नाश करी नांखे एवो
जैनधर्म छे, तेने हे जीव! तुं भाव! भवनो नाश करवा माटे तुं आवा धर्मने भाव. जुओ, आ भवरोगनी दवा.
भाई, तारो आत्मा सदाय ज्ञान–दर्शन–आनंदथी भरेलो छे, पण अनादिथी एक क्षण पण तेमां तें द्रष्टि
करी नथी; बाह्यद्रष्टिथी देहादिनी क्रियानुं अभिमान करीने तेमां ज धर्म मानी लीधो छे. आत्माना भान वडे
सम्यग्दर्शनादि शुद्धभाव प्रगट कर्या विना शुभ–अशुभ भाव वडे चार गतिना भवमां अवतार करी रह्यो छे, पण
ः १०२ः आत्मधर्मः १प०