Atmadharma magazine - Ank 150
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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परचीज देखाय त्यां अज्ञानी मूढप्राणी ज्ञानना स्वच्छ स्वभावने भूलीने, परने पोतानुं माने छे,
राग थाय त्यां राग साथे आत्मानुं एकपणुं माने छे, चैतन्यना स्वभावनी स्वच्छताने ते जाणतो
नथी एटले आत्माना स्वभावमां एकतारूप वीतरागचारित्र तेने थतुं नथी. धर्मी समकितीने
अल्प राग–द्वेष थाय पण त्यां ते रागने पोताना नित्य स्वभाव साथे व्याप्यव्यापक (एकमेक
थयेला) मानता नथी, क्षणिकपर्यायमां छे पण ते मारो कायमी स्वभाव नथी, कायमी स्वभाव
शुद्धज्ञान–आनंदथी भरेलो छे, तेना स्वसंवेदन वडे रागनो अभाव थई जाय छे. रागने
स्वभावमां जमे नथी करता, पण स्वभावथी जुदो ज जाणे छे. अज्ञानी रागने ज आत्मा माने
छे, रागथी जुदा आत्मानी तेने खबर नथी–भेदज्ञान नथी. एटले ते तो राग–द्वेष–मोहादि
अनेक अनेक प्रकारनो ज जीव अनुभवे छे, पण एकरूप ज्ञायकस्वभावने ते अनुभवतो नथी,
एटले तेने सम्यग्दर्शन नथी.
जुओ, कान ने आंखनो वेपार बंध करो, त्यां पण अंदर विचार तो चाले छे ने! तो अंदर
एक चैतन्यतत्त्व आ देहथी जुदुं छे; आंख–कानथी पार ने अंदरना मनना संकल्प–विकल्पोथी
पण पार, ज्ञानना स्वसंवेदनथी आत्मा पकडाय छे; अंतरना ज्ञानना स्वसंवेदननो विषय छे.
आवा आत्माने श्रद्धा–ज्ञानमां पकडीने, तेमां परिणामनी लीनता ते चारित्र छे, ने ते मोक्षनुं
कारण छे. वच्चे राग आवे ते मोक्षनुं कारण नथी पण बंधनुं कारण छे.
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सम्यक्त्वना महिमासूचक
प्रश्नोत्तर
प्रश्नः– मिथ्याद्रष्टि मुनि करतां कयो गृहस्थ श्रेष्ठ छे?
उत्तरः– सम्यग्द्रष्टि–गृहस्थ तो मोक्षमार्गमां रहेलो छे, परंतु मिथ्याद्रष्टि–मुनि
मोक्षमार्गी नथी; माटे मिथ्याद्रष्टि–मुनि करतां सम्यग्द्रष्टि–गृहस्थ श्रेष्ठ छे.
(–रत्नकरंडश्रावकाचार ३३)
प्रश्नः– जीवने कल्याणकारी कोण छे?
उत्तरः– त्रणकाळ अने त्रणलोकमां पण प्राणीओने सम्यक्त्वसमान बीजुं कोई
श्रेयरूप नथी.
(–रत्नकरंडश्रावकाचार ३४)
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चैत्रः २४८२ ः १०१ः