भविष्यमां भव न मळे पण मोक्ष मळे एवो आत्मानो भाव ते धर्म छे, ने एवो भाव तो शुद्ध सम्यग्दर्शन–
ज्ञानचारित्र छे. पुण्यथी स्वर्ग–मनुष्यनो भव मळे, के पापथी तिर्यंच–नरकनो भव मळे, ते कांई धर्म नथी, तेमां
दुःखनो अंत नथी. चारे गतिना भवना दुःखनो जेनाथी अंत आवे एवो शुद्ध वीतरागभाव ते धर्म छे. आ सिवाय
बीजा भावने के बीजी रीते धर्म कहेवो ते तो नाम मात्र छे, तेनाथी कांई भवनो नाश थतो नथी. माटे भवनो नाश
करनार एवा शुद्ध सम्यग्दर्शनादि भावोनी जेमां प्राप्ति थाय छे एवो जिनधर्म ज उत्तम छे,–एम जाणीने हे भव्य!
तुं तेने अंगीकार कर. तुं भवनो नाश करवा माटे आवा धर्मनी रुचि कर ने रागनी रुचि छोड. आ वीतरागी धर्मनी
भावनाथी तारा भवनो नाश थशे, माटे आवा धर्मनी भावना कर.–एम संतोनो उपदेश छे.
भावना वडे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धभाव प्रगटशे ने भवनो नाश थईने सिद्धपद प्राप्त थशे.
थाय ते पण धर्म नथी. पुण्यनो शुभभाव थाय तेने सामान्य लोको (जेने हवेनी गाथाना भावार्थमां ‘लौकिकजनो’
कह्या छे तेओ) धर्म कहे छे, पण ते कांई धर्म नथी, ते तो राग छे,–तेनाथी कांई भवनो अंत आवतो नथी. जैनधर्म
तो वीतरागभावरूप छे ने भवना नाशनुं कारण छे. अहो, अनंत शरीरो संयोगरूपे आव्या ने चाल्या गया, अनेक
प्रकारना रागादि आव्या ने छूटी गया, छतां आ आत्मा तो तेनो ते ज छे,–तो देहथी ने रागथी पार तेनुं शुं स्वरूप
छे–एने ओळखवुं जोईए. ज्ञानस्वभावी तत्त्वने ज्यां सुधी अनुभवमां न ल्ये त्यां सुधी आ शरम भरेला जन्म–
मरणथी छूटकारो न थाय. माटे हे भाई! तारा शुद्ध आत्माना श्रद्धा–ज्ञान–एकाग्रतारूप जिनधर्मने अंगीकार कर–
जेथी तारा आ जन्ममरणनो अंत आवे.
छे ते अहीं बतावे छे. जीवना भाव त्रण प्रकारना छे– (१) शुद्धभाव (२) शुभभाव अने (३) अशुभभाव; तेमां
शुभ तेमज अशुभ ए बंनेथी रहित, जे निश्चय–सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धभाव छे ते ज धर्म छे, अने तेना
वडे ज जैनशासननी शोभा छे. केमके आ सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धभावनी प्राप्ति जैनशासनमां ज थाय छे
ने तेनाथी ज भवनो नाश थाय छे. आवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप वीतरागी जिनधर्मनी आराधना विना
शुभ–अशुभ भाव करीने जीव अनंतकाळथी चार गतिमां रखडयो छे, पुण्य वडे स्वर्गना भव पण अनंतवार कर्या,
छतां हजी भवनो अंत न आव्यो, माटे हे जीव! तुं समज के पुण्य ते धर्म नथी, तेम ज ते करतां करतां भवनो अंत
आवतो नथी. लौकिकजनो पुण्यने धर्म माने छे पण ते धर्म छे नहीं. लौकिकजन एटले मिथ्याद्रष्टि. पुण्यथी धर्म
थाय–एम माननार खरेखर जैनमती छे ज नहि पण अन्यमति जेवो लौकिकजन छे. मोह–राग–द्वेष ते तो भावि–
भवनुं कारण छे, रागनी भावना तो भवनुं कारण छे, माटे हे भव्य! तुं तेनी भावना छोड, रागरहित एवा
चैतन्यस्वभावनी भावना भाव.
पुण्यने ज धर्म मानीने मिथ्यात्वमां अटकी गयो छे तेथी अहीं ते वात स्पष्ट समजावे छे के अरे जीव! शुं तें पुण्य
अनादिकाळमां नथी कर्यां? भाई! पुण्य पण तुं अनंतवार करी चूक्यो, अनंतवार पुण्य करीने स्वर्गनो मोटो देव थयो,
छतां तारुं आ भवभ्रमण तो एम ने एम ऊभुं ज रह्युं! माटे समज के धर्म चीज कांईक जुदी छे के जेनुं तें कदी एक
चैत्रः २४८२