कर, तेनी द्रष्टि कर, तेनो महिमा कर अने तेनी ज भावना कर. पुण्य–पाप ए बंने तारा आत्मधर्मथी भिन्न छे माटे
तेनी रुचि छोड. जेम पाप ते धर्म नथी तेम पुण्य पण धर्म नथी, धर्म तो पुण्य–पाप रहित ज्ञानानंदस्वरूपनी श्रद्धा–
ज्ञान–रमणतारूप वीतरागभाव ज छे, तेनामां ज भवनो नाश करवानी ताकात छे. एक क्षण पण आवा धर्मनुं
सेवन अनंत भवनो नाश करी नांखे छे. पण आवा यथार्थ धर्मनी ओळखाण के रुचि तें पूर्वे अनंतकाळमां कदी करी
नथी, माटे हे भाई! हवे आवा शुद्धधर्मनी भावना भाव. जिनशासनमां तो धर्मनुं स्वरूप आवुं कह्युं छे, ने आवा
धर्मनी भावनाथी ज तारा भवभ्रमणनो अंत आवशे.
धर्मी नथी; पुण्यने धर्म माने छे ते मिथ्याद्रष्टि लौकिकजन जेवो ज छे. मिथ्यात्वादि मोहभाव तथा रागद्वेषरूप क्षोभ,
ते मोह अने क्षोभथी रहित, शुद्धज्ञानानंद स्वरूपनी रुचि ज्ञान अने एकाग्रतारूप वीतरागभाव ते धर्म छे. धर्मनुं
आवुं स्वरूप ओळखीने पहेलां तेनी रुचि करो ने तेनाथी विपरीत मार्गनी रुचि छोडो. आवी अंतर्द्रष्टि थया पछी
पण साधकने अमुक अंशे राग तो होय, पण ते रागने तेओ धर्म नथी मानता, रागने तो बंधनुं ज कारण समजे छे
ने शुद्ध चिदानंदतत्त्वना आश्रये शुद्धभावने ज मोक्षनुं कारण जाणीने तेनी आराधना करे छे. द्रष्टिनी आखी दिशा
पलटी गई छे.
छीए के धर्म तो वीतरागभावमां ज छे, तारा आत्मस्वभावना अंर्तअवलोकनथी जे शुद्ध–वीतरागभाव थाय ते ज
धर्म छे, ने राग ते धर्म नथी. हुं तो शुद्ध ज्ञान–आनंदनो भंडार छुं, कोई पण राग मने जरा हितकर के मददगार
नथी–एवी पहेलां रुचि तो कर. रुचिनी दिशा साची हशे तो आगळ वधीने भवना नीवेडा आवशे. पण जेनी रुचि
ज खोटी हशे, संसारना ज कारणने मोक्षनुं कारण मानीने सेवतो हशे–तेना नीवेडा कयांथी आवशे?
उत्तम छे, अने ए चैतन्यस्वभावना श्रद्धा–ज्ञान–एकाग्रतारूप जे बोधि, तेनी प्राप्ति जैनधर्ममां ज छे तेथी जैनधर्म
ज जगतमां सौथी उत्तम छे. जगतमां आ वीतरागभावरूप जैनधर्म एक ज सत्यधर्म छे, आ एक वीतरागी जैनधर्म
ज मोक्षनी प्राप्ति करावनार छे. बीजा धर्मो तो नाममात्र ज धर्म छे, पण मोक्षनी प्राप्ति तेमां नथी, एटले के ते
खरेखर धर्म छे ज नहि. जेम कडवा करियाताथी भरेली कोथळी उपर ‘साकर’ एवुं नाम लखे, ते नाममात्र ज छे,
तेथी कांई करियातुं कडवुं मटीने मीठुं थई जतुं नथी; तेनी जेम अन्य धर्मोने के रागादिने धर्म कहेवा ते पण नाममात्र
ज छे, तेनाथी कांई भवनो नाश थतो नथी. आत्मानो शुद्ध वीतरागभाव ते ज खरेखर धर्म छे, ते सिवाय
रागभाव पण खरेखर तो अन्यधर्म छे, ते रागने धर्म कहेवो ए तो नाममात्र छे. राग ते धर्म नथी पण धर्मथी
अन्य छे, माटे रागने धर्म माननारा पण अन्यमति छे एटले के लौकिकजन छे,–मिथ्याद्रष्टि छे. माटे परीक्षा करीने
मोक्षना कारणभूत धर्म कयो छे तेनो निर्णय करवो जोईए.
मिथ्यात्व अने राग–द्वेषरूप अशुद्धभाव ते ज संसार छे. बहारनी पर वस्तुमां कांई आत्मानो संसार नथी, एटले
बहारमां घरबार–स्त्री–वेपारधंधा वगेरेनो संयोग छूटवा मात्रथी कांई आत्मामांथी संसार छूटी जतो नथी, पण
अंतरंगमां शुद्ध सम्यग्दर्शनादि भाव वडे मिथ्यात्वादि अशुद्ध भावनो अभाव करवाथी ज संसारनो अभाव थईने
मोक्षदशा थाय
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