आत्मामां ज छे.
पण छूटी जवो जोईए ने मोक्ष ज थई जवो जोईए.–पण एम तो बनतुं नथी. मरती वखते शरीर छोडीने जाय छे
त्यारे पण जीव पोतानो संसार भेगो ज लई जाय छे,–कयो संसार?–के अज्ञान अने रागद्वेषरूपी भाव ते संसार
छे, अने तेने तो जीव भेगो ज लई जाय छे. जो ते अज्ञान अने राग–द्वेषना भावने छोडे तो संसार छूटे, संसार शुं
ने मोक्ष शुं तेनुं पण जीवोने भान नथी, बधुुं बहारमां ज मानी लीधुं छे.
वीतरागी धर्म ते ज संसारना नाशनुं कारण छे, ते ज जैनधर्म छे; तेने चूकीने मूढ जीवो बिचारा रागमां ने पुण्यमां
ज धर्म मानीने त्यां रोकाई गया छे, पण पुण्यनी मीठास ते तो संसारनी उत्पत्तिनुं कारण छे. ‘पुण्य वडे जैनधर्मनी
श्रेष्ठता छे–एटले के रागवडे विकारवडे जैनधर्मनी श्रेष्ठता छे’ एम मूढ अज्ञानी जीवो माने छे, तेने आचार्यदेवे
लौकिकजन कह्या छे. हवेनी ८३मी गाथामां आचार्यदेवे स्पष्ट खुलासो कर्यो छे के जिनशासनमां तो भगवान
जिनेन्द्रदेवे पूजा–व्रतादिना शुभभावने पुण्य कह्युं छे, तेने धर्म नथी कह्यो; धर्म तो आत्माना मोह–क्षोभरहित
परिणामने एटले के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्ध वीतराग भावने ज कह्यो छे. चैतन्यना आनंदनी मस्तीमां
झूलतां ने वनमां वसता वीतरागी संतनी आ वाणी छे.
कहेला चैतन्यस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रथी ज मोक्षना कारणरूप शुद्धभाव थाय छे, ने तेथी ज जैनधर्मनी श्रेष्ठता
छे. माटे हे जीव! आवा शुद्धभाव वडे ज जैनधर्मनो महिमा जाणीने तुं तेने अंगीकार कर, अने रागने–पुण्यने धर्म
न मान, तेम ज तेनाथी जैनधर्मनी महत्ता न मान. जैनधर्ममां तो भगवाने एम कह्युं छे के पुण्यने जे धर्म मानेे छे
ते केवळ भोगने ज ईच्छे छे, केम के पुण्यना फळमां तो स्वर्गादिना भोगनी प्राप्ति थाय छे; तेथी जेने पुण्यनी
भावना छे तेने भोगनी एटले के संसारनी ज भावना छे, पण मोक्षनी भावना नथी. अहो! जेने धर्मनी भावना
होय, मोक्षनी भावना होय, ते जीवो आत्माना स्वभावनुं निरीक्षण करो,......आत्मामां अंर्तअवलोकन करो.....ते ज
मोक्षनुं दातार छे. आत्माना अंर्तअवलोकन विना भवनो अंत आवतो नथी. मोक्षदशा आत्मामांथी आवे छे माटे
आत्मानुं शरण करो, रागमांथी मोक्षदशा नथी आवती माटे रागनुं शरण छोडो. रागनुं शरण छोडीने अंतरमां
वीतरागी चैतन्यतत्त्वनुं शरण करवुं–तेनी श्रद्धा–ज्ञान–एकाग्रता करवा–ते धर्म छे, आवा धर्मथी ज भवनो अंत
आवे छे, आ सिवाय बीजी कोई रीते भवनो अंत आवतो नथी. अज्ञानी भले पुण्य करे पण तेनाथी किंचित् धर्म
थतो नथी ने भवनो अंत पमातो नथी. आ मनुष्यअवतार पामीने जो भवना अंतना भणकार आत्मामां न
जगाडया तो जीवन शुं कामनुं? जेणे भवथी छूटवानो उपाय न कर्यो तेना जीवनमां ने कीडा–कागडाना जीवनमां शुं
फेर छे? माटे भाई! हवे आ भवभ्रमणथी आत्मानो छूटकारो केम थाय तेनो उपाय सत्समागमे कर, सत्समागमे
चिदानंदस्वभावनुं अंतरना उल्लासपूर्वक श्रवण करीने, तेनी प्रतीत करतां ज तारा आत्मामां भव–अंतना भणकारा
आवी जशे.
धर्म मानता नथी. मिथ्याद्रष्टिने तो रागथी
चैत्रः २४८२