Atmadharma magazine - Ank 150
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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भावलिंगथी रहित छे, मुनिनुं भावलिंग जे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र तेने तो धारण करतो नथी तो ते जीव
मोक्षमार्गथी भ्रष्ट छे. परथी भिन्न ने चिदानंदस्वभावथी एकाकार एवा आत्मानो अनुभव नथी–शांतिनुं वेदन
नथी ने एकला शुभरागथी द्रव्यलिंगनी क्रियाओ करे छे ते पण मोक्षमार्गथी रहित छे. तेणे रागमां ज जागृति राखी
छे पण रागथी जुदो पडीने चैतन्यने जगाडयो नथी, आत्मानी अंतरनी निधि ते खोलतो नथी, तो ते आत्माना
मोक्षमार्गने जाणतो नथी. एकला द्रव्यलिंगने–शुभरागने जे मोक्षनुं कारण माने छे. ते मोक्षपंथनो विनाश करनार छे
एटले के ते आत्मा पोते मोक्षमार्गथी भ्रष्ट छे. एकला व्यवहारने ज जे मोक्षमार्ग माने छे ते मोक्षमार्गनो आराधक
नथी पण मोक्षमार्गनी विराधना करे छे, पोताना आत्माना आचरणथी ते भ्रष्ट छे. अहो! अंतरमां आत्मानी
शांतिमां लीन थवुं ते मोक्षमार्ग छे, तेनी खबर अज्ञानीने नथी. अंतरनी शांतिना वेदन वगर जे जीव एकला
शुभमां प्रवर्ते छे ते जीवने छूटकारानो पंथ हाथ आव्यो नथी, ते मोक्षमार्गथी भ्रष्ट छे. माटे चिदानंदस्वरूप आत्मानी
श्रद्धा–ज्ञानपूर्वक तेमां लीनतारूप चारित्रदशा धारण करवानो उपदेश छे.
हवे कहे छे के तपश्चरण आदि वैराग्यभावना पूर्वक तुं ज्ञानने भाव! एकला साताशीलीयापणाने जे सेवे छे
ने ज्ञाननी वातो करे छे तो प्रतिकूळता प्रसंगे ते ज्ञानभावना कयांथी टकावी शकशे? माटे सहनशीलतापूर्वक
चैतन्यशक्तिना आलंबनथी तुं ज्ञानभावना भाव, एवो उपदेश छे. वैराग्यपूर्वक–व्रत–तपादिना अभ्यास सहित तुं
ज्ञानस्वभावनी भावना कर; जेणे एवी भावना भावी छे तेने गमे तेवी प्रतिकूळतामां पण ज्ञानभावना छूटती
नथी. मरणनी वात आवे त्यां अज्ञानी भडके छे. ज्ञानी तो वैराग्यपूर्वक ज्ञानभावना भावे छे एटले तेने मरणनो
पण भय नथी. तेने ज्ञानभावना छूटती नथी. वारंवार आत्माना अनुभवनो प्रयोग कर्यो छे, स्वभावमां ठरवानी
वारंवार अजमायश करी छे तेने प्रतिकूळतानो प्रसंग आवतां पण ज्ञानभावना जागृत रहे छे. माटे पहेलेथी ज
कष्टसहित एटले के सहनशीलताना प्रयत्न सहित ज्ञानभावना करवानो उपदेश छे.
‘हुं आत्मा छुं, शरीर मारुं नथी’–एवी सामान्य धारणा करी होय पण अंतरमां वास्तविक भेदज्ञान करीने
तेनी भावना भावी नथी, तेने शरीरादिनी अनुकूळता होय त्यां सुधी तो एम लागे के ज्ञान छे. पण ज्यां शरीरमां
भींस पडे, देह छूटवानो प्रसंग आवे के बीजा अनेक प्रकारना प्रतिकूळ प्रसंगो आवे त्यां तेनी धारणा टकशे नहि,
एकाकार थईने भींसाई जशे. माटे अहीं एम उपदेश छे के अत्यारथी ज देहादि प्रत्ये उदासीनतानी भावना पूर्वक तुं
ज्ञाननो अभ्यास कर. ज्ञानस्वभावमां एकाग्रतानो प्रयत्न कर. अत्यारे देहादि प्रत्ये उदासीनतापूर्वक वैराग्यनुं सेवन
कर्युं हशे ने ज्ञाननी द्रढता करी हशे तो गमे तेवी प्रतिकूळतामां ते टकी रहेशे. अनुकूळतानो जेने प्रेम छे तेने
प्रतिकूळतामां तेटलो द्वेष थया विना रहेशे नहीं. अनुकूळता हो के प्रतिकूळता हो, ज्ञानी तो बन्नेथी भिन्न आत्माने
जाणीने क्षणे ने पळे तेनी ज भावना भावे छे. ज्ञाननी खरी भावना होय तो खरे प्रसंगे ते हाजर थाय. आखी
जिंदगी सामायिक ने व्रतादि कर्या होय ने ज्यां मरण प्रसंग आवे,–त्यारे कोई कहे के ‘भाई! देहथी भिन्न आत्माने
याद करो,......’ त्यां कहे के ‘अत्यारे आत्माने याद करशो नहि, अत्यारे तो आ देहमां भीसाई जाउं छुं’–जुओ, आ
साची भावना न कहेवाय, धर्मात्माने आवा परिणाम न थाय. धर्मी तो सदाय चैतन्यस्वभावना अवलंबनमां
रहेवानी पोतानी शक्तिनी अजमायश करे छे, वारंवार तेनो अभ्यास करे छे. एटले बाह्य प्रतिकूळता आवे तो पण
तेमनी ज्ञानभावना छूटती नथी. अहो! अंतरमां आत्मा ज मारुं आलंबन छे एवी जेणे भावना करी छे, तेमां
एकाग्रतानो अभ्यास कर्यो छे, तेने गमे ते प्रसंगे ज्ञानभावना छूटती नथी, उल्टुं खरे टाणे ज्ञानभावनानी उग्रता
थाय छे. संयोगथी भिन्नता जाणी छे ने भिन्न चैतन्यनी भावना भावी छे, ते भावना धर्मीने आत्माना अवलंबने
थई छे तेथी कोई संयोगमां ते भावना तेमने छूटती नथी. माटे हे भव्य! ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानी श्रद्धा–ज्ञान
करीने कष्टपूर्वक–उद्यमपूर्वक तेनी भावना कर, एवो उपदेश छे.
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ः १०८ः आत्मधर्मः १प०