Atmadharma magazine - Ank 150
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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अंश पण जीवमां भेळवता नथी. जीव–अजीव तत्त्वोने जेम छे तेम भिन्न–भिन्न जाणीने, पोताना ज्ञायकस्वभावमां ज
आराम करे छे ते ज खरो आराम छे. आतमराममां रहेवुं ते ज खरो आराम छे, ते ज शुद्धता छे. ज्ञानानंदस्वरूप
आत्मानी प्रतीत करीने दर्शनशुद्धि करवी ते ज खरी शुद्धि छे. ने आवी दर्शनशुद्धिथी ज आत्मसिद्धि थाय छे. आ सिवाय
बहारनी देहादि–आहारादिनी शुद्धिने खरेखर शुद्धि कहेता नथी. दर्शनशुद्धि विना देहशुद्धि के आहारशुद्धि भले होय पण
तेमां कयांय आत्मानी सिद्धि थती नथी. अने जेने दर्शननी शुद्धि जागी छे, ते गमे त्यां गमे ते संयोगमां ऊभो होय तो
पण तेने दर्शनशुद्धिना प्रतापे शुद्धता सळंगपणे वर्ते छे, ने तेने ज आत्मानी सिद्धि–मुक्ति प्राप्त थाय छे.
चोथा गुणस्थानथी जे दर्शनशुद्धि थई छे तेमां सातेय तत्त्वो प्रतीतमां आवी गया छे, पछी पांचमे–छठ्ठे
गुणस्थाने आगळ वधतां पण प्रतीत तो एवी ज टकी रहे छे ने शुद्धता वधती जाय छे. भाई! एक वार तारी
चैतन्य विभूतिने प्रतीतमां तो ले. अनंता जीव, अनंता अजीव जगतमां छे ते प्रत्येक स्वतंत्र तत्त्व छे, तेमां कोईना
कारणे कोईनी पर्याय थती नथी. हुं तो जगतना जीव–अजीव तत्त्वोथी जुदो ज्ञायक छुं, मारुं जीवतत्त्व बीजाथी भिन्न
छे.–आवी प्रतीत वगर दर्शनशुद्धि थाय नहि, ने दर्शनशुद्धि वगर आत्मानी शुद्धता थाय नहि. दर्शनशुद्धिथी ज
आत्मानी शुद्धि थाय छे.
× आत्मानी श्रद्धा साथे ज सर्वज्ञनी ने मोक्षनी श्रद्धा थाय छे.
× सर्वज्ञनी श्रद्धा साथे ज आत्मानी ने मोक्षनी श्रद्धा थाय छे.
× मोक्षनी श्रद्धा साथे ज आत्मानी ने सर्वज्ञनी श्रद्धा थाय छे.
× आत्मानी, सर्वज्ञनी ने मोक्षनी श्रद्धा एक साथे ज थाय छे.
× ज्ञानस्वभावनी सन्मुख जोतां ए बधानी प्रतीत एक साथे लई जाय छे.
आत्मा तरफ वळीने तेनी श्रद्धा करतां संवर–निर्जरा मोक्षनी पण श्रद्धा आवी जाय छे, ने तेथी विरुद्ध एवा
अजीव–आस्रव–बंध तत्त्वोनी श्रद्धा पण हेयपणे आवी जाय छे.
आत्मा तरफनी अस्तिमां संवर–निर्जरा–मोक्ष आवे छे ने तेमां अजीव–आस्रव–बंधनुं नास्तिरूप परिणमन
छे. जेणे अहित टाळीने पोतानुं हित करवुं होय तेणे साते तत्त्वो मानवा जोईए.
× मारे हित करवुं छे;
× वर्तमान अहित छे;
× ते पोतामां छे;
× ते टळी शके छे;
× हित पोतामांथी आवे छे;
× हित थवानी शक्ति जेमां छे ते जीवतत्त्व कायम छे;
× तेमांथी हित प्रगटयुं तेनुं नाम संवर–निर्जरा–मोक्ष;
× अहित छे ते आस्रव ने बंध;
× आत्माना पोताना ज आश्रये अहित न थाय;
× अहित कोई विरुद्ध पदार्थना आश्रये थाय;
× जीवथी विरुद्ध तत्त्व ते अजीव;
× अजीवना आश्रये अहित छे;
× अहित क्षणिक छे, ते पलटीने हित थई शके छे, आत्मा कायम रहे छे.
–आम सात तत्त्वोना स्वीकार विना हितनी खरी बुद्धि होई शके नहीं.
हितनुं कारण
जीवतत्त्वनुं अवलंबन.
अहितनुं कारण – अजीवतत्त्वनुं अवलंबन.
अहितरूप –
आस्रव ने बंधतत्त्वो.
हितरूप – संवर–निर्जरा–मोक्ष तत्त्वो.
आम साते तत्त्वोने ओळखीने पोताना शुद्ध जीवतत्त्व तरफ वळतां सम्यग्दर्शनादि थाय छे, ते संवर–
निर्जरारूप छे. अने अजीवनुं अवलंबन छूटतां आस्रव–बंध छूटता जाय छे. जीवतत्त्वमां पूरी लीनता थतां
पूर्णशुद्धतारूप मोक्षदशा प्रगटी जाय छे, ने अजीवनो संबंध छूटी जाय छे. आवी मोक्षदशा ते साक्षात् पूर्ण हितरूप छे.
चैत्रः २४८२
ः १११ः