Atmadharma magazine - Ank 150
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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भावशुद्धिनो उपदेश
* भावप्राभृत गाथा ६८ थी ७१ उपरना प्रवचनमांथी *
सम्यग्दर्शन वगर एकला बाह्य नग्नपणाथी ज पोताने जे मुनि माने छे तेने संबोधीने
आचार्यदेव कहे छे के अरे जीव! सम्यग्दर्शनादि जिनभावना वगर एकला बाह्य नग्नपणाथी तने
शुं लाभ छे? अंतरमां रागनी भावना पडी छे ते मिथ्यात्व छे, ने ते ज दुःखनुं मूळ छे. धर्मीने
तो, हुं ज्ञानानंद शुद्धआत्मा छुं एवी ज भावना छे; राग होवा छतां समकितीने तेनी भावना
नथी, भावना तो शुद्ध ज्ञानमूर्ति आत्मानी ज छे, ने तेनुं नाम जिनभावना छे. आवी
जिनभावना ते ज रत्नत्रयनुं कारण छे ने ते ज मोक्षमार्ग छे. आवी जिनभावना वगर बाह्यमां
नग्नता होय ने पंचमहाव्रत पाळतो होय तो पण तेने किंचित् लाभ नथी; रागनी भावनाने
लीधे ते दुःख ज पामे छे, शरीरनो एक रजकण पण मारो नथी, शरीरनी नग्नदशा थई तेनो
कर्ता हुं नथी, ने अंदर शुभरागनी वृत्ति ऊठे तेनाथी पण मारा आत्माने लाभ नथी, हुं तो देहथी
ने रागथी पार ज्ञानस्वरूप छुं–आवुं भेदज्ञान करीने जिनभावना जे नथी भावतो, ने रागनी
भावना भावे छे, ते भले नग्न रहेतो होय तो पण दुःख ज पामे छे. शरीरनी नग्नता ते कांई
सुखनुं के मोक्षमार्गनुं कारण नथी. अंतरमां शुद्ध आत्मानी भावनारूप जे जिनभावना छे ते ज
भावलिंग छे, ने ते जिनभावना ज सुखनुं कारण ने मोक्षमार्ग छे. भावलिंगी दिगंबर मुनिओ
अंतरमां आवी जिनभावना वडे ज सुखी छे, मूढ जीवो रागनी भावना करीने तेने सुखनुं कारण
के मोक्षमार्ग माने छे, पण ते मिथ्याद्रष्टि छे. ते मोटा राजपाट ने राणीओ छोडीने भले त्यागी
थयो होय, नग्न थईने पांच महाव्रत पण पाळतो होय, पण अंतरमां आत्मा शुं चीज छे तेनुं
भान नथी ने राग करतां करतां कल्याण थई जशे–एवी रागनी भावना भावी रह्यो छे–तो ते
प्राणी खेदखिन्न दुःखी ज छे. आत्मा शांतिनो सागर छे तेनी तो अंतरमां द्रष्टि नथी तो सुख कयांथी
लावशे? भावलिंगी दिगंबर संतो अंतरमां चैतन्यपिंड आत्माना अनुभवथी सुखी छे.
हवे जे अज्ञानी जीव एकला बाह्य नग्नपणाथी ज मुनिपणुं पोताने माने छे अने
अंतरमां जिनभावना तो भावतो नथी.–एवा जीवने आचार्यदेव समजावे छे के अरे मुनि!
अंतरमां तुं चैतन्यस्वभाव साथे तो आत्मानी एकता करतो नथी ने रागनी भावना भावे छे,
तथा अन्य संतोनो दोष
चैत्रः २४८२ ः ९७ः