Atmadharma magazine - Ank 150
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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काढे छे तो एवा ईर्षाभावथी तो तारुं ज अहित थशे....भाई, अंतरमां गुणी साथे एकता करीने
तें गुण प्रगट न कर्या, तो परना एकला दोषने ज तुं देखशे.....तारा स्वद्रव्य साथे पर्यायनी
हरीफाई (–सरखामणी) न करी तो बीजा साथे हरीफाई करीने ईर्ष्याथी तुं दुःखी थईश. धर्मी तो
अंर्तद्रष्टिथी पर्यायने द्रव्य साथे एक करे छे, एटले पोतामां द्रव्यना आश्रये पर्यायनी शुद्धता करे
छे ने दोष टळता जाय छे. शुद्ध स्वभावनी भावना सिवाय बीजी फूरसद कयां छे के कोईना दोष
जोवा रोकाय? अज्ञानी मूढ जीवने अंतरनी शुद्ध आत्मानी तो भावना नथी ने बहारमां
बीजाना दोष जोवामां ज रोकाय छे....बीजानी ईर्षामांथी नवरो थाय त्यारे अंतरमां जिनभावना
भावे ने! चिदानंद स्वभावनी तो भावना नथी ने तेनी खबर पण नथी, छतां बाह्यमां नग्न
थईने मुनिपणुं मनावी बेसे,–तेमां तो धर्मनी अप्रभावना थाय! केमके अंतरनी भावना वगर
मुनि नाम धरावीने हास्य–ईर्षा–कषाय वगेरे भावोमां प्रवर्ते तेमां तो व्यवहारधर्मनी हांसी
थाय. माटे अहीं उपदेश छे के हे भाई! अंतरमां सम्यग्दर्शन प्रगट करीने तुं जिनभावना भाव,
भावशुद्धि कर; भावशुद्धि वगर एकलुं नग्नपणुं तो निरर्थक छे. भावशुद्धि वगर मुनिपणुं कदी
होय नहीं.
हे आत्मा! अंतरमां तुं सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धभावलिंगने धारण कर.........
अंतरंगमां भावदोषथी रहित अत्यंत शुद्ध एवा जिनवरलिंगने धारण कर. एवा अंतरंग
भावलिंग सहित निर्ग्रंथरूप द्रव्यलिंगने धारण कर. अंतरंगमां भावलिंग वगर तो द्रव्यलिंग पण
बगडे. माटे अहीं अंतरमां भावशुद्धिनो प्रधान उपदेश छे. भावशुद्धि एटले सम्यग्दर्शन ज्ञान–
चारित्ररूप भाव; ते भावशुद्धि ज मोक्षनुं कारण छे.
अंतरंगमां भावशुद्धिने जे जीव प्रगट करतो नथी, सम्यग्दर्शनने के उत्तम क्षमादि धर्मने
धारण करतो नथी ने नग्न थईने पोताने मुनि माने छे.–तो ते खरेखर मुनि नथी पण नट–
श्रमण छे, एटले के नटनी माफक तेणे फक्त नग्नवेष धारण कर्यो छे.–ते केवो छे? के अंतरमां
गुण वगरनो एकला दोषनुं ज स्थान छे. ईक्षुना फूलनी जेम तेने कांई गुण नथी. जेम ईक्षुना
फुलमां सुगंध पण नथी ने तेनुं कांई फळ पण नथी, तेम अंतरमां भावशुद्धि विना एकला
श्रमणना बाह्य भेषथी तेने वर्तमानमां कांई सुगंध–एटले शांति के गुण नथी, अने भविष्यमां
तेनुं कांई फळ नथी एटले के ते कांई मोक्षफळनुं कारण नथी. मोक्षफळने देनारी तो जिनभावना
छे. माटे हे जीव! मारुं स्वरूप अमृत चिदानंदस्वरूप छे–एवी जैनभावना भाव.
सम्यग्दर्शनादि वगरनुं नग्नपणुं तो भांडना वेष जेवुं देखाय छे.......अरे! भांड पण
शणगार करीने नाचे तो लोकमां शोभा पामे......पण सम्यग्दर्शनादि वगरनो एकलो नग्नभेष ते
तो हास्यनुं स्थान छे! माटे हे भाई! बहारना एकला नग्नपणामां मुनिपणुं मानवानुं छोड, ने
अंतरमां चिदानंद स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान प्रगट करीने जिनभावना भाव.–आ सिवाय मुनिपणुं
होय नहि. जिनशासनमां सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावनी प्रधानता छे, ने तेने अंगीकार करवानो
प्रधान उपदेश छे. (–२४८२ मागसर सुद १४)
ः ९८ः आत्मधर्मः १प०