Atmadharma magazine - Ank 151
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: १२८ : आत्मधर्म वैशाख : २४८२
ज्ञानस्वरूप आत्मामां सद्रशपणुं अने विसद्रशपणुं बंने रहेला छे. गुणोनी धु्रवता अपेक्षाए सद्रशता छे
एटले के एकरूपपणे रहे छे, –गुणो ते ने ते ज रहे छे; ने अवस्थाना उत्पाद–व्ययनी अपेक्षाए विसद्रशता छे.
एटले के बीजा–बीजापणुं छे. अवस्था एक व्यय थाय छे ने बीजी उत्पन्न थाय छे–ए रीते तेमां विसद्रशपणुं छे,
ने गुणमां कांई एक व्यय थाय ने बीजो उत्पन्न थाय–एम नथी, ते तो ते ज रहे छे, ए रीते तेमां सद्रशपणुं छे.
पर्यायमां ‘विसद्रशपणुं’ कह्युं ते कांई विकारीपणुं नथी सूचवतुं परंतु बदलवापणुं सूचवे छे. सिद्धभगवंतोने
एवी ने एवी निर्मळ पर्याय ज सदाय थया करे छे, छतां त्यां पण पर्यायनुं विसद्रशपणुं तो छे ज. एवी ने
एवी पर्याय होवा छतां पहेली पर्याय ते बीजी नथी, बीजी ते त्रीजी नथी, एम विसद्रशपणुं छे.
धु्रवशक्तिपणे वस्तु एकरूप होय, पण अवस्थापणे एकरूप न होय. जो धु्रवपणे एकरूप न होय, ने
विसद्रश होय तो आत्मा चेतन पलटीने जड थई जाय;–एम बने नहि. चेतन तो चेतनपणे धु्रव रहे छे. अने
अवस्थाथी पण जो एकरूपता होय तो संसार अवस्था टळीने मोक्ष अवस्था थई ज न शके. –पण एम नथी.
वस्तु धु्रवरूपे सद्रश–एकरूप रहेती होवा छतां अवस्थामां उत्पाद–व्ययरूप विसद्रशपणुं छे. –आवो वस्तुनो
स्वभाव छे. उत्पाद–व्यय ए बंने एक ज नथी, उत्पाद तो सद्भाव छे ने व्यय तो अभाव छे, ते बंने एक ज
समये होवा छतां तेमां जुदी जुदी पर्यायनी विवक्षा छे. नाश पामी ते पर्यायनी अपेक्षाए व्यय छे, वर्तमान
वर्तती पर्यायनी अपेक्षाए उत्पाद छे, अने सळंगपणे गुणनी अपेक्षाए धु्रवता छे. आवुं उत्पाद–व्यय–धु्रवरूप
वस्तुनुं स्वरूप छे. उत्पाद–व्यय–धु्रव सहित अस्तित्व छे, ने एवा अस्तित्वमय परिणामशक्ति छे. ज्ञानमात्र
आत्माना अनुभवमां आ शक्ति पण भेगी ज छे. आ शक्ति न होय तो परिणाम ज क्यांथी थाय? ज्ञानने
अंतरमां वाळीने आखा आत्माने लक्ष्य बनावीने तेनो अनुभव करतां एक साथे आ बधी शक्तिओ तेमां
परिणमी रही छे–निर्मळपणे उल्लसी रही छे.
प्रश्न:– पर्यायमां विकार पण छे तो खरो!
उत्तर:– विकार छे ते खरेखर शक्तिनुं परिणमन नथी, केम के शक्तिनुं परिणमन खरेखर तेने ज कहीए
छीए के जे शक्ति साथे अभेद थईने निर्मळपणे परिणमे. शक्तिनो आश्रय छोडीने परना आश्रये विकारपणे
परिणमे तेने खरेखर शक्तिनुं परिणमन कहेता नथी. साधकने अनंतशक्तिना पिंडरूप आत्माना आश्रये
शक्तिनुं निर्मळ परिणमन थाय छे; अने जराक अशुद्धता छे ते शुद्धद्रव्यनी द्रष्टिमां तेने अभूतार्थ छे–गौण छे
तेथी तेनो अभाव ज गण्यो छे. पर्यायमां अल्प विकार होवा छतां तेनो अभाव कहेवो–ए अपूर्व अंर्तद्रष्टिनी
वात छे, शुद्ध द्रव्य उपर जेनी द्रष्टि होय तेने ज ए समजाय तेवी छे.
अहीं जे शक्तिओ वर्णवी छे तेमांथी केटलीक शक्तिओ एवी छे के जे आत्मा सिवाय जडमां पण छे;
परंतु अहीं तो आत्मानी ज वात छे; ने तेमां पण जेनी पर्यायमां आत्मानी प्रसिद्धि थई छे एवा साधक जीवने
अनुलक्षीने वात छे. साधकने ज्ञानमात्र आत्माना अनुभवमां अनंत–शक्तिओ कई रीते ऊछळे छे ते अहीं
बताववुं छे. अज्ञानीने तो आत्मानी प्रसिद्धि नथी, आत्माना ज्ञानलक्षणनी पण तेने खबर नथी; ते तो
रागलक्षणवाळो के शरीरलक्षणवाळो ज आत्मा माने छे. आत्मानी के आत्मानी शक्तिनी तेने खबर ज नथी.
अहो, आ शक्तिओ वर्णवीने तो आचार्यदेवे आत्माना स्वभावनो अद्भूत महिमा प्रसिद्ध कर्यो छे, ज्ञानमात्र
आत्मामां केटली गंभीरता भरी छे ते खोलीने बताव्युं छे.
प्रश्न:– जो एक ज्ञानमात्र भावमां ज आ बधी शक्तिओ समाई जाय छे तो पछी आटली बधी
शक्तिओ जुदी जुदी शा माटे वर्णवो छो? आटली बधी शक्तिओ समजवामां तो घणी महेनत पडे!
उत्तर:– अरे भाई! आ शक्तिओ समजे तो तो अंतरमां आनंदना तरंग ऊछळे एवी अद्भूत वात छे.
आ समजवुं ते ‘महेनत’ नथी पण अनंतकाळना थाक उतारवानो आ रस्तो छे. वळी ‘ज्ञानमात्र भावमां बधी
शक्तिओ समाई जाय छे’ एम कह्युं ते तो अभेदअनुभवनी अपेक्षाए छे एटले के ज्ञानने अंतरमां वाळीने
ज्यां अभेद आत्माने अनुभवमां लीधो त्यां कांई जुदी