Atmadharma magazine - Ank 151
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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वैशाख : २४८२ आत्मधर्म : १२९ :
जुदी शक्तिनो विचार नथी, त्यां तो अभेद आत्माना परिणमनमां बधी शक्तिओ एक साथे निर्मळपणे
परिणमी रही छे. –आ रीते ज्ञानमात्र भावमां बधी शक्तिओ समायेली छे एम कह्युं. परंतु एकला ज्ञानगुणमां
कांई बीजा बधा गुणो आवी जता नथी. जो एक गुणमां बीजा बधा गुण आवी जाय तो तो एक गुण पोते ज
आखुं द्रव्य थई गयुं! –पण एम नथी.
“द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणः” द्रव्यना आश्रये अनंतगुणो रहेला छे, परंतु
एक गुणना आश्रये बीजा गुण नथी. आ रीते अनंतगुणथी अभेदरूप आत्मवस्तुनी द्रष्टि करवा माटे आ
वर्णन छे. आत्मानो स्वभाव अनेकान्तमय कई रीते छे. एटले के तेमां अनंतधर्मो कई रीते छे ते स्पष्ट
समजाववा माटे आचार्यदेवे आ वर्णन कर्युं छे. –तेथी जिज्ञासुओए आ वात समजवी जरूरी छे.
आ एक आत्माने बीजा पदार्थो साथे कांई संबंध नथी, तेथी अहीं पर साथेना संबंधनी वात ज नथी;
वळी विकारनी पण वात नथी, केमके पर साथेनो संबंध छोडी देतां एकला आत्मस्वभावमां विकार नथी, विकार
ते आत्मानो स्वभाव नथी. आ तो आत्माना स्वभावनी वात छे, आत्माना स्वभावमां केवा केवा धर्मो रहेला
छे ते अहीं ओळखावे छे. आ रीते ‘अनेकान्त’ आत्माने परथी अत्यंत जुदो ने पोताना अनंत धर्मोथी
परिपूर्ण बतावे छे. आवा आत्माने जाणवो–श्रद्धवो–अनुभववो ते मुक्तिमार्ग छे.
जगतमां अनंता द्रव्यो छे ते बधाय ‘सत्’ छे. आत्मा पण अनंत छे, एकेक आत्मा भिन्न भिन्न
स्वतंत्र द्रव्य छे; द्रव्यनुं लक्षण ‘सत्’ छे, ते सत्पणुं उत्पाद–व्यय–धु्रवता सहित छे; अने ते उत्पाद–व्यय–धु्रव
पोताना स्वभावभूत ज छे; उत्पाद–व्ययने धु्रवता ए त्रणे थईने द्रव्यनुं सत्पणुं छे. ‘धु्रवता’ एटले वस्तुमां
कायम रहेवानो पण स्वभाव छे, अने ‘उत्पाद–व्यय’ एटले बदलवानो पण स्वभाव छे. कायम रहेवुं अने
बदलवुं ए बंने एकबीजाथी विरुद्ध नथी पण ए बंने थईने ज द्रव्यनुं सत्पणुं छे. आवा उत्पाद–व्यय–
धु्रवतावाळी सत्ता वगर द्रव्यना परिणाम सिद्ध थई शके नहि. आ रीते ज्ञानस्वरूप आत्मानी परिणामशक्ति
उत्पाद–व्ययधु्रवरूप सत्तामय छे. एक परिणाम शक्तिमां नित्यपणुं अने अनित्यपणुं बंने समाय छे. नित्यपणुं
नक्की करनार तो अनित्य छे; जो अवस्था बदलती न होय तो, अनादिनी अज्ञानदशा पलटीने ज्ञानदशा थया
वगर, आत्मद्रव्यनी नित्यतानो निर्णय कोण करे? नित्यतानो निर्णय तो पर्यायमां थाय छे, अने ते पर्याय
अनित्य छे. तथा, जो निर्णय करनारो आत्मा सळंग नित्य टकतो न होय तो ते निर्णयना फळने कोण भोगवे?
अने ते निर्णय कोना आधारे करे? माटे वस्तुपणे आत्मा पोते नित्य पण छे; कायम ‘हुं... हुं’ एवा संवेदनथी
तेनी नित्यतानो अनुभव थाय छे; ने पर्यायमां दुःख–सुख, अज्ञान–ज्ञान ईत्यादि अनेक फेरफारना अनुभवथी
तेनी अनित्यता सिद्ध थाय छे. हे जीव! शरीर अने रागादि बाद करतां एकलुं ज्ञान रह्युं ते पण स्वत: आवा
परिणामस्वभाववाळुं छे, तेमां आनंद छे, प्रभुता छे, स्वच्छता छे, चैतन्यमय जीवन छे. –ईत्यादि अनंती
शक्तिओ तारा ज्ञानमात्र स्वभावने अभिनंदे छे. माटे तुं परनी सामे न जोतां अंर्तद्रष्टि करीने आवा तारा
आत्मस्वभावने देख....... तारा आत्माना अनंत निधानने देख. एने देखतां ज तने अतीन्द्रिय आनंदनो
अनुभव थशे, ने क्यांय परना आश्रयथी लाभ थवानी तारी मिथ्याबुद्धि टळी जशे.
सद्रशता अने विसद्रशता एवा बंने स्वभाववाळुं तारुं अस्तित्व छे. अशुभ विचार बदलीने शुभ थाय
छे–ए तो सौने अनुभवसिद्ध छे; विसद्रशता विना विचारनो पलटो थई शके नहि. अने पहेलांं अशुभविचारमां
हुं हतो ने अत्यारे शुभविचारमां हुं छुं–एम पोताना सळंगपणानो अनुभव थाय छे–ते सद्रशता विना बनी
शके नहीं. आ रीते सद्रशता अने विसद्रशता (अर्थात् उत्पाद–व्यय ने धु्रवता) विना परिणामरूप कार्य थई शके
ज नहि. एक परिणामशक्तिमां आ बधुं आवी जाय छे. परिणामशक्ति आत्मानी छे एटले पोतानी पर्यायना
उत्पाद–व्यय (–सम्यक्त्वनो उत्पाद, मिथ्यात्वनो व्यय ईत्यादि) पोताना स्वभावथी ज थाय छे, कोई कर्म वगेरे
निमित्तोने लीधे आत्माना परिणाम थतां नथी.
आत्मा गुणपणे कायम रहे छे ने अवस्थाथी बदले छे; उत्पाद–व्ययरूपे बदलवुं ने धु्रवपणे कायम टकवुं