Atmadharma magazine - Ank 151
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: १३० : आत्मधर्म वैशाख : २४८२
–एवो ज तेनो स्वभाव छे. उत्पाद–व्यय ने धु्रव ए त्रण जुदी जुदी सत्ता नथी पण त्रणे स्वरूप एक सत्ता छे.
जो वस्तु टकीने बदले तो ज नवुं कार्य थाय. जो टके ज नहि तो तेनो नाश थई जाय, अने जो बदले ज नहि तो
कार्य न थाय. जेम के–लाकडाना रजकणो बदले तो ते बळीने राख थाय; जो ते बदले ज नहि तो राख थाय नहि.
ए प्रमाणे दरेक चीजनो उत्पाद–व्यय–धु्रवस्वभाव छे.
जेम १० तोला सोनुं छे, तेनी हार अवस्था छे, ते पलटीने बंगडी थई; त्यां सोनुं दसेदस तोला टकीने
हारमांथी बंगडी अवस्थारूपे बदल्युं छे, एटले ते सोनुं टकयुं पण छे ने बदल्युं पण छे. ए रीते दरेक वस्तु
उत्पाद–व्यय–धु्रवरूप परिणामस्वभाववाळी छे. अहीं वस्तुनो सूक्ष्मस्वभाव समजाववा माटे सोनानो स्थूळ
दाखलो छे. आत्मा तो स्वाभाविक चीज छे, सोनुं ते कांई मूळ–स्वाभाविक चीज नथी, ते तो संयोगी चीज छे;
ते संयोगनी वात स्वभावमां पूरी लागु न पडे. सोनामां भाग करतां करतां जेना कोई प्रकारथी बे भाग न
पडी शके एवो जे छेल्लो पोईन्ट (–परमाणु) रहे ते मूळ वस्तु छे. सोनुं तो नाश पण पामे, पण परमाणुनो
नाश कदी थतो नथी. अहीं तो द्रष्टांत तरीके समजाववा सोनाने मूळ वस्तु गणवामां आवे छे. जेम आकार
बदलवा छतां सोनुं ते सोनुं ज रहे छे, लाकडुं थई जतुं नथी; अने सोनारूपे धु्रव रहेवा छतां तेना विधविध
आकारो बदले छे; सोनुं तो संयोगी चीज होवाथी थोडो काळ टके छे, ते थोडा काळना द्रष्टांत उपरथी त्रिकाळी
वस्तुनो स्वभाव समजी लेवो. आत्मामां मतिज्ञान–श्रुतज्ञान–केवळज्ञान वगेरे अवस्थाओ पलटे छे अने
ज्ञानस्वभावपणे आत्मा एवो ने एवो रहे छे. अहीं तो ए विशेष बताववुं छे के टकीने अवस्था बदले छे ते
पोताना स्वभावभूत छे. कोई बीजाने लीधे आत्मा टकतो नथी, ने कोई बीजाने लीधे तेनी अवस्था थती नथी.
ए ज प्रमाणे बीजा पदार्थोमां पण सौ सौना स्वभावथी ज उत्पाद–व्यय–धु्रवता वर्ते छे.
जुओ, आवा वस्तुस्वभावनी प्रतीत ते वीतरागतानुं कारण छे. कोई बीजाने कारणे सुख–दुःख थाय ए
वात रहेती नथी. जगतमां जे जीवो दुःखी छे तेओ पोतानी पर्यायना ज तेवा उत्पादथी दुःखी छे, अने तेनी
दुःखपर्याय पलटीने सुखपर्यायनो उत्पाद ते पोते करे तो थाय, बीजो जीव तेनी पर्याय करी शके नहि. आत्मा
पोते अनंत शक्तिनो पिंड छे पण तेनी संभाळ न करतां शरीर उपर लक्ष करीने ‘शरीर ते ज हुं’ एम माने छे,
ने शरीरमां कांईक थतां मने थयुं एम मानीने पोतानी भिन्न सत्ताने भूली जाय छे तेथी ज जीव दुःखी छे.
ज्यांसुधी देहथी भिन्न चैतन्यसत्तानी पोते संभाळ न करे त्यां सुधी तेनुं दुःख टळे नहि. आ एक सिद्धांत छे के,
दुःख कोई बहारना संयोगना कारणे थयुं नथी तेथी बहारना संयोगवडे दुःख मटतुं नथी, पण पोते ऊंधा
भावथी दुःख ऊभुं करे छे ते पोताना सवळा भावथी मटे छे. बीजो कोई दुःख आपी शके नहि ने मटाडी शके
पण नहि.
जुओ, ‘हुं दुःख टाळुं’ एम विचार आवे छे, पण ‘हुं आत्मानो ज नाश करी नांखुं’ एम विचार
आवतो नथी, एटले के पोते कायम टकीने दुःखअवस्था पलटीने सुखअवस्था करवा मांगे छे. आ रीते, ‘मारे
दुःख टाळीने सुखी थवुं छे.’– एमां ज उत्पाद–व्यय–ध्रुवनो ध्वनि आवी जाय छे. आत्मा त्रिकाळ छे ने दुःख
क्षणिक छे, ते दुःख टळी शके छे. दुःख कोण टाळे? –जेणे उत्पन्न कर्युं छे ते; बीजा जोनारे कांई ते दुःख उत्पन्न
कर्युं नथी एटले ते तेने टाळी न शके. शरीरमां रोग थतां, पोतानुं अस्तित्व तेनाथी भिन्न होवा छतां पोताना
भिन्न अस्तित्वने चूकीने ‘आ मने रोग थयो’ एवी मिथ्या कल्पनाथी पोते दुःखी थाय छे. हुं तो चैतन्य छुं,
देहना उत्पाद–व्यय–धु्रवथी मारा उत्पाद–व्यय–धु्रव तद्न जुदा छे, मारा उत्पाद–व्यय–धु्रवमां मारी अनंत
शक्तिओ परिणमी रही छे–एम स्वशक्तिनी संभाळ करे तो तेमां क्यांय दुःख छे ज नहि.
हुं परनुं दुःख टाळी शकतो नथी–एम ज्ञानीने भान होवा छतां, रागनी भूमिकामां दुःखी जीवो प्रत्ये (ते
प्रसंगने कारणे नहि पण पोताना रागने कारणे) करुणा वगेरेनो भाव थई आवे छे, केवळी भगवान वगेरे
वीतरागी जीवोने एवो राग थतो नथी. धर्मीने कोईवार रोग थाय ने दवा करवानो राग पण थाय, पण त्यां