: १४४ : आत्मधर्म जेठ : २४८२
भगवान! तारो आत्मा ज्ञानस्वरूप छे. परने लीधे तारा ज्ञाननुं अस्तित्व नथी. परने लीधे ज्ञान के
शांति थवानुं जे माने ते परनी साथे ज्ञाननी मित्रता (–एकता) करे छे, आत्मा साथेनी एकता करतो नथी
तेथी तेने आत्माना विवेकनो अभाव छे. मारुं ज्ञान ने मारो आनंद तो मारांमां छे, परथी मारे तद्न भिन्नता
छे–एवो विवेक करीने अंतर्मुख थईने एकाग्र थतां आत्मानी प्राप्ति थाय छे. आ रीते ज्ञानानंदस्वरूप पोताना
आत्माने प्राप्त करो–एम आचार्यदेव आदेश करे छे.
पोताना चैतन्यघरने छोडीने अनादिथी परज्ञेयोने पोतानुं मानीने तेमां वास्तु कर्युं छे, –परमां वसवाट
करीने संसारमां रखडी रह्यो छे, तेने अहीं आचार्यदेव आत्मानुं स्वरूप ओळखावीने पोताना चैतन्यघरमां
वास्तु करावे छे. अंतर्मुख थईने चैतन्यनी भावनामां वसवुं ते वास्तुं छे; अनादिथी पोताना घरमां जीवे वास्तु
कर्युं नथी. चैतन्स्वभावने जाणीने पोताना स्वघरमां एकवार पण वास्तु करे (–तेमां एकाग्र थईने रहे) तो
परम आनंदरूप मोक्षनी प्राप्ति थाय. आ रीते आत्मामां वास्तु कर्युं, ते कर्युं, हवे सादि अनंत पोताना
आनंदस्वरूपमां ज ते वसी रहेशे.
बहिर्मुख थईने परज्ञेयोमां मैत्रिथी राग–द्वेषरूपे जे परिणमे छे तेने आत्मप्राप्ति दूर छे. अने अंतर्मुख
थईने ज्ञानस्वरूपमां एकता करतां राग–द्वेष रहित थईने पोताना ज्ञानानंदस्वरूपने प्राप्त करे छे. आ रीते
अंतर्मुख थईने आत्मभावनाथी ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने तमे प्राप्त करो एम आचार्य भगवाननो उपदेश छे.
जे जीव आत्मप्राप्तिनो जिज्ञासु थईने श्रीगुरु पासे आव्यो छे, अने सत्समागमे सत्यनुं श्रवण करे छे,
ते श्रवणना विकल्पने क्रियाकांड कहे छे; ने ते क्रियाकांड वडे ज्ञानकांडनी प्राप्ति थाय छे एम व्यवहारे कहेवाय छे.
“तारो आत्मा अखंड ज्ञानमूर्ति छे तेमां अंतर्मुख था” एम सत्समागमे श्रवण करतां ते तरफनो उल्लास आवे
छे, ते भावने अहीं क्रियाकांड कह्यो छे, ए रीते सत्समागम करतां करतां अंतर्मुख ढळे त्यारे ज्ञानकांड प्रचंड
थयो–एम कहे छे. ए रीते अंतर्मुख थईने जे ज्ञानकांडने प्राप्त करे तेने पहेलांनां सत्समागमनो विकल्प ते
निमत्त होवाथी ते विकल्परूप क्रियाकांड वडे ज्ञानकांडनी प्राप्ति थई एम व्यवहारे कहेवाय छे.
जेने आत्मानी प्राप्तिनी जिज्ञासा जागी तेने साचा ज्ञानी गुरु तरफनो भाव आव्या विना रहे ज नहि,
केम के ज्ञाननी प्राप्तिमां ज्ञानीनुं ज निमित्त होय एवो नियम छे.
“बुझी चहत जो प्यास को है बुझनकी रीत;
पावै नहि गुरुगम विना येही अनादि स्थित.”
(श्रीमद् राजचंद्र)
आत्मानी जेने झंखना जागी छे–तरस लागी छे–तो ते बुझाववानी रीत छे; पण ते रीत ज्ञानी गुरुनी
देशना वगर प्राप्त थती नथी; एकवार ज्ञानीनी सीधी देशना मळवी ज जोईए, एवो ज अनादि नियम छे.
ज्ञाननी प्राप्ति करनारने महान सत्समागम–वारंवार ज्ञानीनो समागम–निमित्तरूपे होय छे, तेनुं नाम प्रचंड
कर्मकांड छे. आ रीते वारंवार सत्समागमे श्रवण–मनन करी करीने आत्माना ज्ञायकस्वभावनो निर्णय करे छे,
ने ते स्वभावनी भावना करीने तेमां एकाग्र थईने तेनो अनुभव करे छे. आ ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानी
प्राप्तिनो उपाय छे. आ उपायथी ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने तमे प्राप्त करो ज... एम आचार्य भगवाननो
उपदेश छे.
जेने आत्मानुं हित करवुं होय तेणे शुं करवुं ते वात चाले छे; सत्समागमे आत्माना ज्ञानस्वभावनुं
वारंवार श्रवण करीने प्रचंडपणे–वारंवार तेना निर्णयनो उद्यम करवो.
विकल्प सहित वारंवार निर्णयनो अभ्यास करे छे तेने प्रचंड क्रियाकांड कहेवाय छे. ते निर्णयनो प्रचंड
उद्यम करी करीने ज्ञानस्वभाव तरफ वळे छे. ए रीते ज्ञानकांडनी उग्रता वडे मोहादिथी भेदज्ञान करीने
आत्माने तेनाथी विभक्त करे छे, ने ते विभक्त आत्मानी भावनाना प्रभाव वडे परिणतिने अंतरस्वरूपमां
एकाग्र करे छे;