Atmadharma magazine - Ank 152
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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जेठ : २४८२ आत्मधर्म : १४५ :
ए रीते अत्यंत अंतर्मुख थईने ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने प्राप्त करे छे. आ आत्मानी प्राप्तिनो उपाय छे.
सर्वज्ञदेव एम कहे छे के ‘तारो आनंद तारामां छे;’ –एवी ज्यारे प्रतीत करी त्यारे सर्वज्ञदेवनी श्रद्धा थई.
ज्ञानी गुरु पण एम कहे छे के ‘तारो आनंद तारामां छे, तेमां अंतर्मुख था;’ –एवी ज्यारे प्रतीत करी
त्यारे गुरुनी श्रद्धा थई.
शास्त्रो पण एम कहे छे के ‘तारा आत्मामां ज तारो आनंद छे;’ –एवी ज्यारे प्रतीत करी त्यारे
शास्त्रोनी प्रतीत थई.
अहो! मारो आनंद मारामां छे, मारा आत्मामां सर्वज्ञपदनी ताकात पडी छे–एम बहुमान लावीने देव–
गुरु–शास्त्रनी श्रद्धा करी ते व्यवहार छे. ए रीते सत्समागमथी अत्यंत बहुमानपूर्वक निरंतर प्रयत्न करतां
आत्मानो अनुभव करे छे. समयसारमां पण ३८ मी गाथामां कहे छे के–“जे अनादि मोहरूप अज्ञानथी
उन्मत्तपणाने लीधे अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो अने विरक्त गुरुथी निरंतर समजाववामां आवतां जे कोई प्रकारे
समजी, सावधान थई... पोताना परमेश्वर आत्माने... जाणीने... सम्यक् प्रकारे एक आत्मराम थयो...”
गुरु कांई चोवीसे कलाक तो उपदेश नथी आपता, छतां “विरक्त गुरुद्वारा निरंतर समजाववामां
आवतां” एम कह्युं ते शिष्यनी तैयारी बतावे छे, शिष्यने श्री गुरुए जे कह्युं तेनी धून लागी छे, निरंतर तेनी
झंखना लागी छे, चोवीसे कलाक वारंवार तेनुं चिंतवन करे छे, आत्माने प्राप्त करवानी धून थई गई छे, तेनी
ज चाह छे; माटे कहे छे के श्रीगुरुद्वारा तेने निरंतर समजाववामां आवे छे. वारंवार तेने ए ज घोलन चाले छे;
अंदरमां चैतन्यस्वभावने पकडवा मांगे छे. त्यां पहेलांं बहुमाननो विकल्प छे, तेथी उपचारथी एम कह्युं के ते
विकल्परूप क्रिया वडे ज्ञान पामे छे; पण खरेखर तो विकल्पने छोडीने तेनाथी पार ज्ञानस्वभावमां एकाग्र थाय
छे त्यारे ज सम्यग्दर्शनने सम्यग्ज्ञान पामे छे.
अहा, मारो आत्मा आनंदमूर्ति छे–एम श्रीगुरु कहे छे–आ रीते पर तरफनुं वलण रहे त्यां सुधी पण
विकल्प छे, अंतर्मुख वळीने स्वसंवेदन करे त्यारे सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान थाय छे. तेमां श्रीगुरुनी देशना अने ते
तरफना बहुमाननो भाव ते निमित्तरूप छे; तेने अहीं क्रियाकांड कह्यो छे. पण ते विकल्पमां ज रोकाई रहे तो कांई ते
क्रियाकांड वडे ज ज्ञाननी प्राप्ति थती नथी. पहेलांं आत्मा तरफनो विकल्प हतो ते तोडीने, अंतरमां चैतन्यस्वभावने
पकडीने केवळ आत्मभावनाथी सम्यग्ज्ञान थयुं, त्यां पूर्वना विकल्पने क्रियाकांड गणीने तेना द्वारा ज्ञान थवानुं कह्युं.
परिणतिने अंतरमां एकाग्र करी त्यारे सम्यग्ज्ञान थयुं, ने आनंदमय आत्मानी प्राप्ति थई.
× × ×
हुं जे आनंद शोधतो हतो ते आनंद मारा अंतर–स्वरूपमां ज छे–एम प्रतीत करीने जे ज्ञान अंतरमां
एकाग्र थयुं ते ज्ञान प्रतिष्ठित छे, स्थिर छे. अने ए रीते जेनुं ज्ञान स्थिर थयुं छे ते जीव राग–द्वेषादिरूपे
परिणमतो नथी. आ रीते आत्मस्वभावनुं अवलंबन करी करीने अनंता जीवो मोक्ष पाम्या छे. जेम बहारमां
सम्मेदशिखरजीथी अनंता तीर्थंकरो–संतो मुक्ति पाम्या छे, तेम अंतरमां ते बधाय जीवो चैतन्यना शिखररूप
आ आत्मस्वभावना आधारे मुक्ति पाम्या छे. आ चैतन्यना सम्मेदशिखर उपर आरूढ थवुं ते ज मोक्षनी
यात्रा छे.
अंतर्मुख एकाग्र थईने पोताना ज्ञान–आनंदस्वरूप आत्माने प्राप्त करीने आचार्यदेव कहे छे के अहो!
जगत पण आवा ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने आजे ज प्राप्त करो. हुं ज्ञानानंदस्वरूप छुं–एवी श्रद्धा तो जरूर करो.
आत्माना परम आनंदना जमणनुं सागमटे नोतरुं दीधुं छे. जगतना बधाय जीवो आत्माना आनंदने आजे ज
अवश्य प्राप्त करो. आत्मानी प्राप्तिनो अमे जे उपाय कह्यो ते उपायथी ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानी जरूर प्राप्ति
थाय छे, माटे आ रीते जगत ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने आजे ज प्राप्त करो–एम आचार्यदेवनुं आमंत्रण, आदेश
अने उपदेश छे.
ज्ञानानंदथी भरेलुं स्वतत्त्व ज ईष्ट छे, ज्ञान अने आनंदमां डुबेलुं एवुं आ स्वतत्त्व ज ईष्ट छे.
अतीन्द्रिय (अनुसंधान माटे जुओ टाईटल पेज ४)