Atmadharma magazine - Ank 152
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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सौराष्ट्रनी श्रुतवत्सल संत – त्रिपुटी!
















सौराष्ट्रना गीरनारधाम उपरनुं आ द्रश्य जोतां ज ए संत–त्रिपुटी अने श्रुतज्ञान प्रत्येनी भक्तिथी हृदय
भींजाई जाय छे. अहो! ए समर्थ श्रुतवत्सल श्री धरसेनाचार्यदेव! अने तेमनी पासेथी श्रुतविद्या झीलनारा
पुष्पदंत–भूतबलि मुनिवरो एमनो अपार विनय, एमनी परम श्रुतभक्ति, एमनी अगाध ज्ञानशक्ति, अने
ज्ञानना दरियाने हृदयमां पचावी देवानी एमनी गंभीरता! –ए बधायने याद करतां आ संतोना चरणोमां शीर
झूकी पडे छे.
अहो, सौराष्ट्रनी भूमि ज्यारे आ संत त्रिपुटीथी शोभती हशे ने श्रुत–अभ्यासनो प्रसंग बनतो हशे
त्यारे ए केवो धन्य प्रसंग हशे!! भगवाननी परंपराथी चाल्यो आवेलो पावनश्रुतप्रवाह धरसेनाचार्यदेव
ज्यारे पुष्पदंत अने भूतबलि मुनिवरोने भणावी रह्या त्यारे निर्विघ्नपणे श्रुतनो अभ्यास पूर्ण थतां गीरनार
उपर आवीने देवोए ए श्रुतधारक संतोनी पूजा करी हती.
महावीर भगवाननी परंपराथी आवेला ज्ञाननिधाननो जे वारसो धरसेनाचार्यदेव पासेथी मळ्‌यो ते
अपूर्व वारसो कायम जळवाई रहे ते माटे पुष्पदंत–भूतबलि भगवंतोए “षट्खंडागम” गूंथीने ए ज्ञानने
चिरंजीवी कर्युं. अने चतुर्विघसंघे जेठ सुद पांचमे ए श्रुतपूजननो महान उत्सव अंकलेश्वरमां ऊजव्यो, आजे
पण ए दिवस ‘श्रुतपंचमी’ तरीके उल्लासथी ऊजवाय छे.
श्री वीरसेन आचार्यदेवे श्री धवला टीका रचीने ए षट्खंडागमनां रहस्यो खोल्या... ने घणा लांबा
काळथी अप्रसिद्ध रहेलुं ए पावनश्रुत आजे संतोना प्रतापे फरीने प्रसिद्धिमां आव्युं छे, ए पण महान हर्षनो
प्रसंग छे. जयवंत वर्तो ए दिव्यश्रुत अने ए श्रुतधारक संतो!