Atmadharma magazine - Ank 152
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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जेठ : २४८२ आत्मधर्म : १३९ :
जाय एम नथी, तेमज ते भावथी आत्मानुं कांई हित थाय छे–एम पण नथी, अने ते भाव पाप छे–एम पण
नथी. ते मात्र पुण्यबंधनुं कारण छे. जीवदयाना शुभभावने पाप कहेनारा तो मूढ छे, तेने धर्म माननार पण
मूढ–अज्ञानी छे, अने ते भावथी आत्मा परनुं कांई करी शके एम माननार पण मूढ–अज्ञानी ज छे. परथी ने
पर तरफना शुभभावथी पण पार एवा पोताना ज्ञानानंदस्वरूपने ओळखे ते ज धर्मी छे.
केटलाक मूढ जीवो एम माने छे के “काळ प्रमाणे धर्म पण पलटाववो जोईए; अत्यारे आत्मानी
समजणनो काळ नथी अत्यारे तो बस! देशसेवाना काममां लागी जवुं ए ज धर्म छे.” तेने ज्ञानी कहे छे के अरे
भाई! शुं अत्यारे तारो आत्मा मरी गयो छे? आत्मा त्रिकाळ छे तो तेनो धर्म पण त्रिकाळ एकरूप वर्ते छे. शुं
चोथा काळनो आत्मा जुदी जातनो ने पंचमकाळनो आत्मा जुदी जातनो–एम छे? नहि, आत्मा तो ते ज छे,
काळ पलटतां आत्मानुं स्वरूप कांई पलटी जतुं नथी; एटले चोथा काळे धर्मनुं जे स्वरूप हतुं ते ज अत्यारे छे.
“एक होय त्रणकाळमां परमारथनो पंथ” –धर्मनुं स्वरूप त्रणेकाळे एक ज छे. तेमां कोई काळे फेरफार थतो नथी.
जैनधर्मने काळनी मर्यादामां केद करी शकाय नहि. जैनधर्म ए वस्तुनुं स्वरूप छे, अर्थात् आत्मानी शुद्धता ते
जैनधर्म छे; आत्माने काळनी मर्यादामां केद करी शकाय नहि, वस्तुस्वरूपनो नियम फेरवी शकाय नहि. कोई काळे
वस्तुस्वरूप विपरीत थतुं नथी. चेतनवस्तु जड बनी जाय के जड वस्तु चेतन थई जाय–एम कोई काळे पण
बनतुं नथी, तेम जे विकारी भाव छे तेनाथी धर्म थई जाय–एम पण कोई काळे बनतुं नथी. माटे वस्तु
स्वभावरूप जैनधर्मने काळनी मर्यादामां केद करी शकातो नथी.
आत्मानी सत्ता त्रिकाळ छे, ते गुणरूपे धु्रव टकीने पर्यायरूपे पलटे छे. –आवा सत् स्वभावनी जेने
श्रद्धा थाय ते समजे छे के मारा सत्ने परनो आश्रय नथी;–आवुं यथार्थ भान थतां परसन्मुख तेनुं वलण न
रहेतां पोताना स्वभाव तरफ तेनुं वलण जाय छे एटले स्वभावना सम्यक् श्रद्धान्–ज्ञान–आचरणरूप धर्म
तेने थाय छे.
मूढ प्राणी कहे छे के पहेलांं संसार सुधारी लईए पछी धर्म करशुं. –तो तेने कहे छे के अरे भाई! विकारी
भाव ते ज संसार छे; ते संसार तो काळा कोलसा जेवो छे. जो तेने धोळो करवो होय तो तेने सळगावी दे...
एटले के संसार कदी सुधरे तेम नथी, माटे स्वभावना सम्यक्–श्रद्धा–ज्ञान–आचरण वडे विकारने बाळी नांखीने
तुं संसारथी छूटीने मोक्ष पामी जा.
दरेक वस्तु पोताना स्वभावथी ज उत्पाद–व्यय–धु्रवस्वरूप छे, एटले तेना स्वभावथी ज तेनुं परिणमन
थाय छे. पण अज्ञानी जीव स्वभावने न जोतां संयोगथी ज जुए छे एटले संयोगने लीधे कार्य थयुं–एम ते
विपरीत देखे छे. आ ‘देखत–भूल’ ए ज संसारनुं मूळ छे. अने वस्तुना यथार्थ स्वभावने देखवो ते मोक्षनुं
मूळ छे. वस्तुना स्वभावने जाण्या वगर बहारथी ज्ञानी ओळखाय नहि, अने ज्ञानी कई रीते धर्म करे छे ते
पण ओळखाय नहि. आ संबंधी वांदरानुं द्रष्टांत–एकवार केटलाक माणसो एकगामथी बीजे गाम जतां वच्चे
जंगलमां रोकाया. पोष महिनानी कडकडती ठंडीना दिवसो, एटले आसपासथी सुका डाळ–पान भेगा करीने
ढगलो कर्यो ने तेमां चीनगारी मूकीने भडको कर्यो, अने तापीने टाढ ऊडाडी. ते वखते झाड उपर बेठेला
वांदराओए ते जोयुं. वादरा पण टाढथी थरथर धू्रजे, एटले तेमने पण टाढ ऊडाडवानुं मन थयुं. झाडपाननो
ढगलो तो भेगो कर्यो. –पण हवे चीनगारी क्यां? माणसोए चकचकतुं कांईक मूकयुं हतुं एम धारीने रातना
आगीया जीवडा जे चकचक थता होय छे तेने पकडया ने ढगला वच्चे मूक्या! घणी महेनत करी पण भडको थयो
नहि ने वांदराभाईनी टाढ ऊडी नहीं. तेम ज्ञानीओए तो आत्मामां चैतन्य–चीनगारी प्रगटावी छे, अंतरमां
अतीन्द्रिय स्वभावनी सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान रमणता वडे तेने धर्म थाय छे, ने शुभराग वखते तेओ पूजा–भक्ति–
दया–दान वगेरेमां पण प्रवर्ते छे. त्यां अज्ञानी जीवो (वांदरानी जेम), ज्ञानीओनी चैतन्य चीनगारीने तो
ओळखता नथी, ने एकला पूजा–भक्ति दया–दान वगेरे शुभक्रियाथी