Atmadharma magazine - Ank 152
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: १४० : आत्मधर्म जेठ : २४८२
ज्ञानीओने धर्म थतो हशे–एम मानीने पोते पण तेने ज धर्म मानीने पूजा–भक्ति वगेरेमां प्रवर्ते छे.
ज्ञानीनी एकली बहारनी शुभक्रिया जोईने अज्ञानी तेने धर्म मानी ल्ये छे. पण चैतन्य चीनगारीने जाणतो
नथी तेथी तेने धर्म थतो नथी. आ रीते स्वभावने न जोतां संयोगने ज अज्ञानी जुए छे. ज्ञानीने
उपदेशनो भाव आवे ने हजारो–लाखो जीवोने हितनो उपदेश करे, –त्यां अज्ञानीने एम लागे के आ बीजानुं
भलुं करता लागे छे माटे ते ज धर्मनो उपाय छे! पण भाई, तें जे जोई ते क्रिया खरेखर ज्ञानीए करी ज
नथी अने ज्ञानीए जे क्रिया करी छे तेने तो तुं देखतो नथी. खरेखर वाणीनी के रागनी क्रियाना ज्ञानी कर्ता
नथी, तेणे तो पोताना ज्ञानानंदस्वभावना सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–रमणता ज कर्या छे. ने तेना वडे ज धर्म थाय
छे. आ समज्या वगर एकली बहारनी क्रियानी नकल करे ते तो वांदरानी माफक ‘अक्कल वगरनी नकल’
छे, तेमां धर्म के कल्याण नथी.
महावीर भगवाने साडाबार वर्ष सुधी तपश्चर्या करी–एम कहे, परंतु भगवानना आत्माए अंतरमां शुं
कर्युं ते तो जाणे नहि–भगवाननी तपश्चर्यानुं स्वरूप तो जाणे नहि, –ने आहार छोडीने पोते पण तपश्चर्या करी
एम मानी ल्ये, –पण तेमां किंचित् धर्म नथी. अहो, भगवाने तो अंतरना चैतन्यस्वभावमां लीन थईने
आनंदनो अनुभव कर्यो हतो, ने ते आनंदनी लीनतामां आहारनी वृत्ति ज ऊठती न हती, –एवी भगवाननी
तपश्चर्या हती. त्यां अंतरमां आनंदनी लीनता थई तेने तो मूढ जीवो देखता नथी ने एकला बहारना आहार–
त्यागने ज धर्म मानी ले छे, ते पण उपरना द्रष्टांतनी माफक अक्कल वगरनी नकल छे, तेमां धर्म नथी.
धर्मनी सत्ता आत्मामां छे, आत्मानी सन्मुख जेनुं वलण छे तेने सर्वत्र धर्म थाय छे; अने आत्म–
सन्मुख नहि पण पर–सन्मुख जेनुं वलण छे ते गमे त्यां हो... वनमां हो, मंदिरमां हो, के साक्षात् भगवान
पासे हो... पण तेने धर्म थतो नथी, केम के गुण ज्यां भर्या छे तेनी सामे तो ते जोतो नथी. पोतामां गुण भर्या
छे तेमां जे द्रष्टि करतो नथी तेने धर्म थतो नथी. अज्ञानीने मिथ्याश्रद्धाथी आखो आत्मा ढंकाई गयो छे, तेने
यथार्थ आत्मा ओळखावीने आचार्यदेव आत्मानी प्रसिद्धि करावे छे, तेथी आ समयसारनी टीकानुं नाम पण
आत्मख्याति’ (आत्मानी प्रसिद्धि) राख्युं छे.
भाई, ज्ञानलक्षणथी तारो आत्मा प्रसिद्ध छे; आत्माने ज्ञानलक्षणवाळो कहेतां ते ज्ञाननी साथे आनंद
वगेरे अनंतशक्तिओ भेगी ज छे. तेमां एक परिणामशक्ति पण छे; एक साथे उत्पाद–व्यय–धु्रवताथी
आलंबित, सद्रश तेमज विसद्रशरूप अस्तित्वने आत्मा पोतानी परिणामशक्ति वडे धारी राखे छे. आ
परिणामशक्तिमां ‘धु्रवउपादान’ अने ‘क्षणिकउपादान’ बंने समाई जाय छे. सद्रशता अथवा धु्रवता ते तो
धु्रवउपादान छे अने विसद्रशता अथवा उत्पाद–व्यय ते क्षणिकउपादान छे. –आवी परिणामशक्तिने ओळखतां
‘निमित्तथी कार्य थाय’ एवी पराश्रयबुद्धि छूटी जाय छे ने स्वभाव–आश्रित अनंत–गुणोनुं निर्मळ परिणमन
थाय छे. –आ ज सिद्धिनुं साधन छे.
आवा पोताना आत्माने ओळखवानो प्रयत्न करवो ते ज दरेकनी पहेली फरज छे. अत्यारे तो लोको
बहारमां फरज–फरज करे छे, देशनी फरज, कुटुंबनी फरज, पुत्रनी फरज, युवानोनी फरज–एम अनेक प्रकारे
बहारनी फरज मनावे छे ने मोटा मोटा भाषण करे छे, –पण अहीं तो कहे छे के भाई, ए बधी बहारनी फरज
ते तो वृथा व्यथा छे, –मफतनी हेरानगती छे. आ आत्मानी समजण करवी ते ज बधायनी खरी फरज छे, –ए
फरज एकवार बजावे तो मोक्ष मळे.
जुओ, आ आत्मानी फरज! बहारमां क्यांय आत्मानी फरज छे? –के ना; बहारनुं तो आत्मा कांई करी
शकतो नथी, छतां फरज माने ते तो मिथ्या–अभिमान छे. तारो स्व–देश तो तारो आत्मा छे, अनंत गुणथी
भरेलो तारो असंख्यप्रदेशी आत्मा ज तारो ‘स्वदेश’ छे, तेने ओळखीने तेनी सेवा कर, ते तारी फरज छे; ए
सिवाय बहारनो देश ते तो ‘पर–देश’ छे,