आत्मस्वरूपनी वार्ता
हे जीव! संतो तने तारा आत्मिकसुखनी प्राप्ति थवानी वार्ता संभळावे छे... तुं उमंग लावीने तेनुं श्रवण कर.
आत्मानुं वास्तविक स्वरूप अनंतकाळमां जीव समज्यो नथी, अने वास्तविक लक्षे तेनुं श्रवण पण पूर्वे
कदी कर्युं नथी. एकवार पण परथी भिन्न शुद्धआत्मानी वार्ता यथार्थ लक्षे ज्ञानी पासेथी सांभळे तो आत्मानी
ओळखाण थईने सम्यग्दर्शन अने मोक्ष थया विना रहे नहि. (आमां ‘यथार्थ लक्ष’ ते उपादान छे अने ज्ञानी
पासेथी श्रवण ते निमित्त छे.)
* आत्मानो स्वभाव शुं छे तेना ज्ञान वगर, त्यागी थईने व्रत–तप अनंतवार कर्या ने स्वर्गमां
अनंतवार गयो, परंतु रागथी पार चैतन्यतत्त्वना लक्ष वगर लेश मात्र सुख न पाम्यो. मंदरागमां धर्म मानीने
परसन्मुख ज रोकाई गयो, पण रागथी पार चैतन्यस्वरूप छे तेमां स्वसन्मुख न थयो, एटले किंचित् धर्म न
थयो, ने भवभ्रमण न मटयुं.
* अनादिकाळथी भवभ्रमण करीने आत्मा दुःखी थाय छे, ते भवभ्रमण केम अटके अने आत्माने सुख
केम थाय तेनो उपाय अहीं आचार्यदेव समजावे छे.
* भाई, तारुं सुख तारा आत्मामां छे. ज्यां सुखनी सत्ता छे तेनी सन्मुख जो तो सुख प्रगटे; बहारमां
जोये के रागनी सामे जोये अनंतकाळे पण सुख प्रगटे तेम नथी. बहारना लक्षे–देवगुरुशास्त्रना लक्षे–रागनी
मंदता अनंतवार करी, पण अंर्तलक्ष कदी कर्युं नथी. परथी जुदो, रागथी जुदो, हुं तो ज्ञानमूर्ति छुं–एवा
आत्माना लक्षे ज सम्यग्दर्शनादि धर्म थाय छे, ने ते ज भवभ्रमणना दुःखथी छूटवानो उपाय छे.
* जेने आत्मानी शांति जोईती होय, आत्मानुं हित जोईतुं होय तेणे प्रेमथी आ वात सांभळवा जेवी
छे. जेम कोई रंक माणस लक्ष्मी मेळववा मांगतो होय ने कोई पुरुष तेने पांचलाख रूपिया मळवानो उपाय
संभळावे तो ते केवी होंसथी लक्ष राखीने सांभळे छे! तेम अहीं जेने भवभ्रमणना दुःखनो थाक लाग्यो छे ने
तेनाथी छूटीने आत्मानुं सुख लेवा ईच्छे छे एवा जीवने आचार्यदेव सुखनो उपाय बतावे छे, चैतन्यनां निधान
बतावे छे. बीजुं बधुं लक्ष छोडीने एक आत्माना लक्षे अपूर्व होंसथी जिज्ञासु जीव ते वात झीले छे: अहो! मने
मारा आत्मानुं सुख मळवानी आ वात छे, एम उल्लास लावीने समजवा मांगे तो जरूर आ वात समजाय.
* समकिती धर्मात्मा अंतरनी चैतन्यऋद्धिने पोतानी लक्ष्मी जाणे छे, चैतन्य सिवाय जगतमां क्यांय ते
पोतानुं सुख मानता नथी; ते भगवानना दास छे.... ने.... जगतथी उदास छे. आवा समकिती धर्मात्मा ज
चैतन्यस्वभावना लक्षरूप लक्ष्मीथी ज सदाय सुखिया छे. आत्माना लक्ष विना कदी सुख थाय नहि.
* एकेक आत्मामां अनंतधर्मो छे, ते धर्मो पोताथी ज छे, परने लीधे आत्मानो एकेय धर्म नथी.
त्रिकाळ शुद्धस्वभाव ते पोताना द्रव्यनो धर्म छे, अने क्षणिक अशुद्धता ते पण पोतानी पर्यायनो धर्म छे, ते कोई
परने कारणे नथी. अशुद्धता ते क्षणिक पर्यायनो धर्म होवाथी ते टळी शके छे. शुद्धद्रव्यनी साथे एकता करतां
पर्यायनी अशुद्धता टळी जाय छे. परने लीधे आत्मानी शुद्धता के अशुद्धता माने तो तेणे आत्माने परथी जुदो
नथी जाण्यो; तेथी ते बाह्यज्ञेयोमां ज पोतापणुं मानीने राग–द्वेष–मोहथी दुःखी थाय छे, पण परथी भिन्न
आत्म–स्वरूपनी भावना तेने होती नथी. ज्ञानी तो परथी भिन्न, पोताना धर्मो वडे पोताना चैतन्यस्वरूप
आत्माने जाणीने, तेमां अंतर्मुख थईने तेनी ज भावना करे छे, ने ए रीते आत्मभावना वडे ते पूर्व कदी नहि
अनुभवेला एवा ज्ञान–आनंदस्वरूप आत्माने अनुभवे छे. आ ज भवभ्रमणना दुःखथी छूटीने आनंदनी
प्राप्तिनो उपाय छे. [–पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी.]