Atmadharma magazine - Ank 153
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 5 of 21

background image
योगी–मुनिवरो शाश्वत सिद्धसुखने पामे छे. पहेलां कदी जे नहोता पाम्या एवा पूर्णआनंदने पामे छे पर साथेनो
संबंध तोडीने एकाकी चिदानंदस्वभावमां जेणे उपयोगने जोडयो ते ज खरा योगी छे. एकत्व आत्मामां उपयोगने
एकाग्र करीने मुनिओ तेनी भावना करे छे. ज्ञानानंदस्वरूपमां ऊंडे ऊतरीने निर्विकल्पशांतिमां वारंवार लीन थाय
छे एवा मुनि मोक्षना साधक छे. जेओ अंतरना चिदानंद स्वरूपमां एकाग्रता तो करता नथी, तेनी भावना करता
नथी, अने बाह्यमां मुनिवेष धारण करीने पण लौकिककार्योमां आरंभ–समारंभमां वर्ते छे, उदिष्टआहार करे छे, ते
तो मोक्षमार्गथी भ्रष्ट छे अहीं तो मोक्षमार्गमां केवा मुनिओनुं ग्रहण छे–केवा मुनिओ मोक्षमार्गी छे–तेनी वात छे.
अहो, मोक्षना साधक वीतरागी संतो तो जगतथी एकदम निस्पृह होय छे, देहथी पण एवा निस्पृह छे के
वस्त्रथी शरीर ढांकवानी वृत्ति ज ऊठती नथी, तोय उदिष्ट आहार लेता नथी, अंतरना स्वभावमां एकाग्र थईने
आनंदनो अनुभव करवामां लीन छे, ने पछी मोक्ष पामीने सदाकाळ पूर्ण आनंदमां ज ते लीन रहे छे.
मोक्षना साधक मुनिओ मुख्यपणे तो एकाकी वन–जंगलमां रहीने, एकाकी ज्ञानानंदस्वरूपनी भावनामां ज
लीन छे. अने हजी जराक राग बाकी छे, तेथी शुभवृत्ति ऊठतां सर्वज्ञदेवनी भक्ति, गुरुनी भक्ति, संसार प्रत्ये
वैराग्यनुं चिंतन, मोक्षमार्ग प्रत्ये उत्साह–इत्यादि भावो आवे छे. मुनि पोते छठ्ठा–सातमा गुणस्थाने छे, ने सर्वज्ञ
अरिहंतपरमात्मा तेरमी–चौदमी भूमिकाए बिराजमान छे एटले ते पूर्ण परमात्मा प्रत्ये भक्तिनो भाव मुनिने
आवे छे, तेमज मोक्षना साधक एवा गुरु प्रत्ये पण भक्ति–वंदननो भाव आवे छे; वळी वारंवार वैराग्य भावना
भावे छे, तथा ध्यानमां रत छे अने सम्यक् चारित्रमां उद्यत छे–आवा मुनिओ मोक्षमार्गना अधिकारी छे. जेने
अंतरमां चैतन्यनी ध्यानदशा थई नथी ने एकला शुभरागमां वर्ते छे तेवा द्रव्यलिंगी मुनिने मोक्षमार्गमां
स्वीकारवामां आवता नथी, ते तो बंधमार्गमां ज छे, संसारमार्ग मां ज छे. एकाकार चैतन्यस्वरूप शुं छे तेनुं जेने
सम्यक्भान पण नथी, तेने तेमां एकाग्रतारूप ध्यान होतुं नथी, ने चैतन्यना ध्यान विना मुनिदशा होती नथी.
चैतन्यनी सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान करीने पछी संसारथी अत्यंत विरक्त थईने, चैतन्यनी पूर्णताने साधवा जेओ नीकळ्‌या
छे एवा मुनिवरो वारंवार उपयोगने अंतरमां एकाग्र करीने आत्मध्यान करे छे, एटले तेओ आत्मध्यानमां तत्पर
छे, अतीन्द्रिय आनंदना दरियामां वारंवार डुबकी मारे छे;–आवी दशावाळा मुनिओ ज मोक्षने पामे छे, तेथी तेमनुं
ज मोक्षमार्गमां ग्रहण छे. आ सिवाय जेने आत्मानुं भान नथी, जे पंचमहाव्रतादि शुभरागने धर्म माने छे, के
वस्त्रसहित मुनिदशा माने छे–ते कोईनुं मोक्षमार्गमां ग्रहण नथी, ते कोईने खरेखर मुनिदशा नथी.
एकेक आत्मा पोतानी भिन्न चैतन्य सत्ताथी परिपूर्ण, आनंदथी भरेलो छे, तेना स्वसंवेदन–अनुभववडे
पहेलां सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान थाय छे. त्यां आत्मज्ञान थवा छतां हजीत्रणकाळ त्रणलोकनुं पूरुं ज्ञान नथी, ने
पूरो आनंद नथी. ते पूर्ण–ज्ञान–आनंदने साधवा माटे अंतरना ज्ञानानंदस्वभावमां लीन थवानो प्रयत्न करे छे ने
वारंवार तेमां लीन थाय छे–एवा मुनिओ मोक्षमार्गी छे. अने ज्यारे स्वरूपमां अत्यंत लीन थई जाय छे त्यारे
रागादि सर्वथा टळीने सर्वज्ञता अने पूर्ण आनंदरूप परमात्मदशा प्रगटे छे, आत्मा पोते परमात्मा थई जाय छे.
एकेक आत्मामां आवा परमात्मा थवानी ताकात छे. पण तेने ओळखीने तेमां लीन थाय त्यारे ज परमात्मदशा
प्रगटे छे.
निश्चयवडे आत्मानो जेवो स्वभाव छे तेवो जाणे अने पछी आत्माने माटे पोते पोताना स्वभावमां सारी
रीते लीन थाय एवा आत्मध्यानी मुनिवरो सम्यक्चारित्रवान थया थका मुक्ति पामे छे. देहादिक पर संयोगथी के
अशुद्ध अवस्थाथी आत्माने ओळखे तो तेणे आत्मानुं वास्तविक स्वरूप जाण्युं नथी एटले तेने आत्मामां
लीनतारूप चारित्र होतुं नथी. देहने लक्षमां लईने ‘हुं
ः १प८ः
आत्मधर्मः १प३