Atmadharma magazine - Ank 153
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 6 of 21

background image
मनुष्य छुं’ एम माने अथवा क्रोधादि थाय ते ज हुं छुं–एम माननार मिथ्याद्रष्टि छे. अरे प्रभु! देह तुं नथी, क्षणिक
उपाधिभाव जेटलो तुं नथी, धनवानपणामां तारी मोटप नथी, तुं तो ज्ञान–आनंद स्वरूप छो, ते ज्ञान–आनंद
स्वरूपने ओळखीने तेमां लीनता कर.–ए ज मोक्षप्राप्तिनो उपाय छे.
उत्कृष्ट ज्ञान–दर्शन स्वभावथी भरेलो, पुरुषाकार आत्मा छे, आवो आत्मा ध्यान करवा योग्य छे. आवा
आत्माना ध्यानवडे राग–द्वेष रहित निर्द्वन्द्व थनार योगी मुक्ति पामे छे. भगवान अरिहंत परमात्मानो आत्मा
जेवो शुद्ध छे तेवो ज मारा आत्मानो स्वभाव छे–एम ओळखीने, तेना ध्यान वडे श्रमण–मुनिवरो मुक्ति पामे छे.
माटे चैतन्यनुं ध्यान करो,–एम भगवान जिनदेवे मुनिओने कह्युं छे. आ रीते मुनिओने तो मोक्षना कारणरूप
चारित्र सहित आत्मध्याननो उपदेश छे. हवे जेनाथी चारित्रदशा न थई शके–आत्मामां विशेष लीनता न थई शके–
एवा श्रावकोने सम्यग्दर्शननी द्रढतानो उपदेश आपे छे, सम्यक्त्व न होय तेणे तो प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण करवुं, अने
सम्यक्त्व ग्रहण करीने तेने अति द्रढपणे जाळवी राखवुं–एम हवे श्रावकोने माटे उपदेश आपे छे.
श्रावकना कर्तव्यनो उपदेश
आचार्यदेव भलामण करे छे के अहो, हवे हुं श्रावकोने माटे संसारविनाशकर अने सिद्धिकर एवो उपदेश करुं
छुं तेने हे श्रावको! तमे सांभळो.
गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिक्कंप ।
तं झाणे झाईज्जइ सावय! दुक्खक्खयट्ठाए ।। ८६।।
श्रावकोए शुं करवुं? श्रावकोए प्रथम तो सुनिर्मळ अने मेरुसमान निष्कंप अचल दोषरहित सम्यक्त्व ग्रहण
करवुं; अने पछी ध्यानमां तेने ज ध्याववुं. दुःखना क्षयने अर्थे सम्यक्त्वने ज ध्याववुं, एटले के सम्यक्त्वमां जेवा
शुद्धआत्मानो अनुभव थयो छे तेवा शुद्धआत्माने ज ध्याववो. ते शुद्धआत्मानी प्रतीत तो एवी द्रढ राखवी के
त्रणलोक खळभळी जाय तोय श्रद्धा न डगे. जेम पवनथी मेरु पर्वत डगतो नथी तेम मेरुवत् अडग–निश्चल श्रद्धा
करवी. पहेलां ज श्रावकोए सम्यग्दर्शन ग्रहण करवुं. सम्यग्दर्शन वगर तो श्रावकपणुं होतुं नथी, माटे भगवाने
श्रावकोने कह्युं छे के प्रथम तो सम्यक्त्वने अंगीकार करो. अने ते सम्यक्त्व वडे वस्तुस्वरूपनी वारंवार भावना
भाववी. वस्तुस्वरूपनी भावनाथी श्रावकने गृहकार्य वगेरे संबंधी क्षोभ पण मटी जाय छे. सम्यक्त्ववडे वस्तुस्वरूप
जेणे जाण्युं नथी तेने व्रत–तप वगेरे साचुं होतुं नथी. माटे हे श्रावक! दुःखना क्षयने माटे निर्विकारी आनंदमूर्ति
आत्माने प्रतीतिमां लईने तेनुं ज ध्यान कर. जुओ गृहस्थाश्रममां रहेला श्रावकोने पण आत्मध्याननो उपदेश छे.
अज्ञानी कहे छे के निश्चय सम्यग्दर्शन अत्यारे न थई शके!–ते तो विपरीत प्ररुपणा छे. अहीं तो कहे छे के श्रावकने
निश्चय सम्यग्दर्शन थाय अने ते पण एवुं अचल द्रढ थाय के डगे नहीं. धर्मात्मा गृहस्थाश्रममां पण चैतन्य स्वरूप
आत्मानी भावना भावे छे. अहो! हुं तो ज्ञानस्वरूप आत्मा छुं, देहनो एक रजकण पण मारो नथी, परचीजनी
क्रिया मारे लीधे थती नथी,–आवा वस्तुस्वरूपना चिंतनथी समकितीने आकुळता टळी जाय छे. माटे कह्युं छे के हे
श्रावको! प्रथम वस्तुस्वरूप जाणीने, परथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानी श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन प्रगट करो ने
दुःखना क्षयने अर्थे तेने ज ध्यावो. आ रीते, श्रावकधर्म के मुनिधर्म ए बंनेनो पायो सम्यग्दर्शन छे. माटे भगवाने
सौथी पहेलां सम्यग्दर्शन करवानुं कह्युं छे.
आत्माना ज्ञान–आनंद स्वभावने श्रद्धामां लईने समकिती वारंवार तेनुं चिंतन करे छे; ने आ रीते
आत्माना स्वभावना चिंतनथी तेने दुःख टळे छे. आचार्यदेव कहे छे के अहो! सम्यग्दर्शन तो श्रावकोनुं परम कर्तव्य
छे. ते सम्यग्दर्शननी उपासनाना बळथी ते आठ कर्मनो क्षय करे छे–
अषाढः २४८२
ः १प९ः