आचार्यदेवनो उपदेश छे.
सेत्स्यंति येऽपि भव्याः तज्जानित सम्यक्त्वमाहात्म्यम् ।। ८८।।
मूळ कारण सम्यक्त्व ज छे, माटे कह्युं के जे उत्तमपुरुषो त्रणेकाळ मुक्त थाय छे ते आ सम्यक्त्वनो ज महिमा जाणो.
गृहस्थ पण मन–वाणी–देहथी पार, ज्ञानानंद स्वरूप आत्माना ध्यान वडे सम्यग्दर्शन पामे छे, ने श्रद्धाना बळे ते
गृहस्थाश्रमथी निर्लेप रहे छे, ने ते सम्यक्श्रद्धारूप परिणमतां अल्पकाळे स्थिरतारूप चारित्र प्रगट करीने केवळज्ञान
अने मोक्ष पामशे. आ रीते गृहस्थनो आ सम्यक्त्व धर्म पण धर्मना सर्व अंगोने सफळ करे छे, माटे आ पण
परमधर्म छे, ने तेनो परम महिमा छे.
सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं ।। ८९।।
मारो आत्मा देहथी छूटीने जाणे सिद्धभगवंतोनी वच्चे बेठो छे–एवा स्वप्नां आवे. पण स्वप्नामांय एम न आवे के
कुदेवादिनो आदर करता होय! शुद्ध चिदानंदस्वरूपनो अनुभव करीने तेनी श्रद्धा थई छे ते श्रद्धामां स्वप्नेय मलिनता
आववा नथी देता आवा समकितीने आचार्यदेव धन्य कहे छे. चिदानंदस्वभावना आदर सिवाय रागनो स्वप्ने पण
आदर धर्मीने थतो नथी.–आवा समकिती ज जगतमां धन्य छे, ते ज सुकृतार्थ छे–करवा जेवुं उत्तमकार्य तेणे ज कर्युं छे,
ते ज खरा मनुष्य छे–चैतन्यस्वरूपने यथार्थपणे मान्यो ते ज खरा मनुष्य छे. आत्मानी दिव्य शक्तिने श्रद्धामां लईने
तेने खोलवानो प्रयत्न करे छे तेथी ते देव छे; ते ज शूरवीर अने पंडित छे. सम्यक्त्व विनानो नर पशुसमान छे. आवुं
सम्यक्त्वनुं माहात्म्य जाणीने तेने अंगीकार करवानो आचार्यदेवनो प्रधान उपदेश छे.
योद्धाने हरावीने मोटी जीत मेळवे तेने कांई शूरवीर अहीं कहेता नथी, आत्माना स्वभावनी श्रद्धा वडे जेणे
अनादिना मिथ्यात्वमोहनो नाश करीने सम्यक्त्व कर्युं ते ज शूर छे. लोकमां धामधूमथी लग्न वगेरे करे तेने लोको
कृतार्थ कहे छे, पण तेमां आत्मानुं जराय हित नथी; आत्मस्वभावनी लगनी लगाडीने सम्यक् श्रद्धा करे ते ज कृतार्थ
छे ने ते अल्पकाळमां सिद्धि पामे छे. मोटा राजाने के लाखो–करोडो रूा. दान करे–तेने अहीं धन्य नथी कहेता,–एवुं
तो अनंतवार जीवे कर्युं, तेमां कांई कल्याण नथी. अनादि काळमां नहि करेल एवुं अपूर्व सम्यग्दर्शन करीने तेने
निर्मळपणे मेरुसमान निश्चल टकावी राखे छे ते ज धन्य छे. अहीं सम्यक्त्वनो महिमा बतावीने एम कहे छे के
श्रावकोए आवा सम्यक्त्वने प्राप्त करीने तेने निर्दोषपणे टकावी राखवुं. आ सम्यक्त्व ते श्रावकोनुं परम कर्तव्य छे.
यथार्थ देव–गुरु–धर्म शुं अने आत्मानुं वास्तविक स्वरूप शुं ते ओळखीने सम्यक् श्रद्धा करवी. घणा शास्त्रो भणे,
पण जो शुद्ध आत्मप्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन न करे तो तेने