भविष्यमां पण संतो एम ज कहेशे. त्रणे काळे एक ज प्रकारनो जैनधर्म छे. अहो, आ परम सत्य वात छे.
परंतु, आ वात मानवा जाय त्यां अत्यार सुधीनी पंडिताई करी ते पाणीमां जाय छे, एटले केटलाकने
खळभळाट थई जाय छे. पण जो आत्मानुं हित करवुं होय–श्रेय करवुं होय तो आ समज्ये ज छूटको छे. भाई
रे! तारा आत्माना हितने माटे तुं आ समज. बहारनी शेठाई ने शास्त्रनी पंडिताई तो अनंतवार मळी तेमां
तारुं कांई हित नथी. आ चैतन्यस्वभाव अने तेनो वीतरागी धर्म शुं छे ते समज, तेमां ज साची पंडिताई छे.
माटे हे वत्स! तारुं श्रेय शेमां छे ते जाणीने तेने तुं समाचर.
धरावे के पंडित नाम धरावे के त्यागी नाम धरावे, परंतु मोहादि रहित यथार्थ जैनधर्म शुं छे तेने जे समजता
नथी ने रागने ज धर्म मानी रह्या छे तो ते पण खरेखर लौकिकजनो ज छे, लौकिकजनोनी मान्यताथी तेनी
मान्यतामां कांई फेर नथी. धर्मनी भूमिकामां शुभभाव आवे भले, पण ते पोते धर्म नथी; तेम ज ते करतां
तेनाथी धर्म थई जशे एम पण नथी. रागने क्यांय धर्म कह्यो होय तो त्यां ते आरोपीत कथन समजवुं, उपचार
समजवो, लौकिक रूढिनुं कथन समजवुं, पण ते रागने खरेखर धर्म न समजवो. धर्म तो ते वखतना
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धभावने ज समजवो.
शुद्धभावरूप ने बीजो शुभरागरूप–एम बे प्रकारना मोक्षमार्ग नथी. मोक्षमार्ग कहो के धर्म कहो, ते एक ज प्रकारे
छे. मोहक्षोभरहित एवो जे वीतरागी शुद्धभाव ते ज धर्म छे, ने जे राग छे ते धर्म नथी.
कह्या छे. साधकजीवने शुभराग वखते हिंसादिनो अशुभ राग टळ्यो ते अपेक्षाए, तथा साथे रागरहित
ज्ञानानंद–स्वभावनी द्रष्टिपूर्वक वीतरागी अंशो पण वर्ते छे ते अपेक्षाए, तेना व्रतादिने पण उपचारथी धर्म
कहेवाय. परंतु आवो उपचार क्यारे? के साथे अनुपचार एटले के निश्चय श्रद्धा–ज्ञान–चारित्ररूप धर्म वर्ते छे
त्यारे. परंतु अहीं तो उपचारनी वात नथी, अहीं तो पहेलांं यथार्थ वस्तुरूप नक्की करवानी वात छे.
पहेलांं ७७ मी गाथामां आचार्यदेवे कह्युं हतुं के: हे भव्य! जीवना परिणाम अशुभ, शुभ, अने शुद्ध एम त्रण
प्रकारनां छे. तेसा शुद्धपरिणाम तो आत्माना स्वभावरूप छे. ते त्रण प्रकारना भावोमांथी जेमां श्रेय होय तेने
तुं समाचर! एटले के शुद्धभावमां ज मारुं श्रेय छे–एम नक्की कर, ने तेने ज मोक्षनुं कारण जाणीने तुं आचर!
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रय छे ते ज त्रण भुवनमां साररूप छे; अने तेनी प्राप्ति जिनशासनमां ज
थाय छे, तेथी जिनशासननी उत्तमता छे. पुण्य वडे जिनशासननी उत्तमता नथी. सम्यग्द्रष्टिना पुण्य पण