Atmadharma magazine - Ank 154
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: १८२ : ‘आत्मधर्म’ २४८२: श्रावण:
अत्यारे पण बिराजे छे ने हजी लाखो–करोडो वर्ष रहेशे, केमके भगवाननुं आयुष्य एक करोड पूर्वनुं छे. आवा
जिनेश्वरभगवाननी दिव्यवाणी महाविदेहक्षेत्रमां साक्षात् सांभळीने आचार्यदेव अहीं आव्या, ने तेमणे आ
समयसार वगेरे महान शास्त्रो रच्यां. तेमां जिनेश्वर भगवंतोए शुं कह्युं छे ते तेमणे जाहेर कर्युं छे. आ गाथामां
कहे छे के:– जिनशासनमां जिनेन्द्रदेवोए व्रत–पूजादिक शुभरागमां पुण्य कह्युं छे, ने आत्माना मोह क्षोभरहित
शुद्धपरिणामने धर्म कह्यो छे. जुओ, आ वीतरागी संतनी वीतरागी वाणी! वीतरागभाव ते ज जैनधर्म छे,
राग ते जैनधर्म नथी.
पुण्य ते आस्रव; धर्म ते संवर
पुण्य अने धर्म ए बंने चीजने भगवाने जिनशासनमां जुदी जुदी कही छे. पुण्य तो आस्रवबंधरूप छे
एटले के संसारनुं कारण छे, अने धर्म तो संवर–निर्जरारूप छे, ते तो मोक्षनुं कारण छे. आम पुण्य अने धर्म
वच्चे आकाश–पाताळ जेवुं अंतर छे. पाप जुदी चीज छे, पुण्य दूसरी चीज छे, ने धर्म तीसरी चीज छे. पुण्य–
पाप ए बंने बर्हिमुखी भावो छे, ने धर्म तो आत्मानो अंर्तमुखी भाव छे. अहो! अंतर्मुख थईने
चैतन्यस्वभावनुं निरीक्षण करो... चैतन्यस्वभावनुं निरीक्षण करतां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धपरिणाम
थाय छे, तेने ज भगवाने धर्म कह्यो छे. आ ज वात समयसारमां कही छे के जे शुद्धआत्माने अनुभवे छे ते
समस्त जिनशासनने अनुभवे छे.
लोकोत्तर जिनधर्म. अने ते संबंधी लाकिजनोनी भ्रमणा
जुओ, आ लोकोत्तर जिनधर्मनुं स्वरूप! पुण्यने धर्म कहेवो ते लौकिकजनोनी उक्ति छे. बस, आ
‘लौकिकजन’ कह्या ते वात केटलाक पंडितोने आकरी लागे छे. लोकोत्तर एवा जिनमार्गनी सामे लौकिकजनोनी
केवी मान्यता छे ते पंडित जयचंद्रजीए भावार्थमां बताव्युं छे. लोकोत्तर एवा जिनेन्द्रभगवान तो कहे छे के
पुण्य ते धर्म नथी; सम्यग्द्रष्टि वगेरे पण लोकोत्तरद्रष्टिवाळा छे ने तेओ पण एम ज माने छे. अने लौकिकजनो
एटले के एकला व्यवहारने ज धर्म माननारा मिथ्याद्रष्टि जीवो व्रत–पूजा वगेरेना शुभरागने धर्म माने छे. पण
ते खरेखर धर्म नथी. धर्म तो ते ने के जेनाथी जन्म–मरणनो नाश थाय. एवो धर्मनो मोह–क्षोभरहित जीवना
शुद्धपरिणाम छे. आवा शुद्धआत्मपरिणामने धर्म जाणवो ते ज यथार्थ छे एटले ते ज निश्चय छे, अने पुण्यने
धर्म कहेवो ते तो मात्र लौकिकजनोनुं कथन छे, ते लोकोक्तिने व्यवहार कह्यो छे. ते लौकिक कथनने ज जे यथार्थ
मानी ल्ये छे, एटले के रागरहित निश्चयधर्मनुं स्वरूप तो समजता नथी ने शुभरागने उपचारथी धर्म कह्यो तेने
ज खरेखर धर्म मानी ल्ये छे तेओ लौकिकजन छे, तेओ खरेखर जैनमती नथी पण अन्यमती छे.
लौकिकजनो तथा अन्यमतीओ व्रत–पूजा वगेरे शुभ–रागने जिनधर्म माने छे. पडिमा केटली? –व्रत
केटला? एम एकला शुभराग उपरथी अज्ञानीओ जिनधर्मनुं माप काढे छे. ए रीते व्रत–पूजा–पडिमा वगेरेनो
शुभ–राग ते ज जिनधर्म छे एम लौकिकजनो तथा अन्यमतीओ माने छे, परंतु लोकोत्तर एवा जैनमतमां तो
एवुं नथी. लोकोत्तर एवा जिनशासनमां तो भगवाने वीतरागभावने ज धर्म कह्यो छे. चिदानंद
आत्मस्वभावने अंतर्मुख श्रद्धा–ज्ञानमां लईने तेमां लीनतारूप शुद्धभाव ते ज जैनधर्म छे, तेनाथी ज जन्म–
मरणनो अंत आवीने मोक्षनी प्राप्ति थाय छे, ते ज ज्ञेयरूप छे.
‘यः श्रेयान् तं समाचर’
‘पुण्यथी धर्म न थाय’ –आ वात केटलाक लोकोने नवी लागे छे अने सांभळतां भडकी ऊठे छे के ‘अरे!
शुं पुण्य ते धर्म नहीं? –अने पुण्यने धर्म माने ते लौकिकजन!!’ –हा भाई, एम ज छे. तुं धीरजथी सांभळ तो
खरो, आ तारा हितनी ज वात छे. जैनधर्म शुं चीज छे एनी वात पण तें हजी सांभळी नथी, एटले तने नवुं
लागे छे; बाकी तो अनादिकाळथी तीर्थंकर भगवंतो ए वात कहेता आव्या छे, ने ते प्रमाणे साधी साधीने
अनंता जीवो मोक्ष पाम्या छे. हजारो वर्षथी संतो ए वात कहेता ज आव्या छे, दोढसो वर्ष पहेलांं जयपुरना