: श्रावण: २४८२ ‘आत्मधर्म’ : १८१ :
जिनशासनो महिमा (७)
[श्री अष्टप्राभृत गा. ८३ उपरनां खास प्रवचनो]
तीर्थंकर भगवंतोए दिव्यध्वनि वडे जे जिनशासन कह्युं छे ते ज
अहीं कुंदकुंदाचार्यदेवे जाहेर कर्युं छे.
धर्म तो आत्मानो अंर्तमुखी भाव छे.... अहो! अंतर्मुख थईने
चैतन्यस्वभावनुं निरीक्षण करो.
हे भाई! तुं धीरजथी सांभळ... आ तारा हितनी वात छे. तारुं
श्रेय शेमां छे ते जाणीने तेने तुं समाचर.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रय त्रण भुवनमां साररूप छे,
ते ज श्रेयरूप छे, तेनी प्राप्ति जिनशासनमां ज थाय छे; तेथी ज
जिनशासननी उत्तमता छे; तेनी ज उपासना करवानो जिनशासननो
उपदेश छे.
रागने जे धर्म माने छे ते वीतरागी जैनधर्मनो भक्त नथी, पण
ते जनधर्मनो विरोधी छे.
सारभूत भाव
आ ‘भावप्राभृत’ वंचाय छे.
भावप्राभृत एटले भावोमां सार; जीवना भावोमां सारभूत भाव क्यो छे? एटले के मोक्षना कारणरूप
भाव क्यो छे ते अहीं ओळखावे छे.
आ भावप्राभृतनी कुल १६५ गाथा छे, तेमां आ ८३मी गाथा बराबर वच्चेनी छे, ८२ आगळ रही ने
८२ पाछळ रही; आ वचली गाथामां जिनशासन शुं छे तेनुं रहस्य आचार्यदेवे अलौकिक रीते समजाव्युं छे.
जीवना भाव त्रण प्रकारना छे– (१) अशुभ (२) शुभ अने (३) शुद्ध; मिथ्यात्व तथा हिंसादिक
भावो ते अशुभ छे, ते तो पापबंधनुं कारण छे. तथा दया–पूजा–व्रतादि भावो ते शुभ छे, ते पुण्यबंधनुं
कारण छे, ते कांई मोक्षनुं कारण नथी. अने मिथ्यात्व रहित तथा रागद्वेष रहित एवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्ररूप जे शुद्धभाव छे ते धर्म छे, ते मोक्षनुं कारण छे, अने जिनशासनमां भगवाने आवा शुद्धभावने ज
सारभूत कह्यो छे.
वीतरागी संतनी वीतरागी वाणी
अनंत तीर्थंकर भगवंतोए दिव्यध्वनिवडे जे जिनशासन कह्युं ते ज अहीं कुंदकुंदाचार्यदेवे जाहेर कर्युं छे.
तेओश्री लगभग बे हजार वर्ष पहेलांं आ भरतक्षेत्रमां थया... तेओ अहींथी महाविदेहक्षेत्रमां साक्षात् तीर्थंकर
सीमंधर परमात्मा पासे गया हता, ते सीमंधर भगवान