: १८० : ‘आत्मधर्म’ २४८२: श्रावण:
प्रश्न: प ब:– एवा कया जीवो छे के जेने (१) सम्यग्दर्शन होय पण सकलचारित्र न होय? (२)
सम्यग्दर्शन होय पण सम्यग्ज्ञान न होय? अने (३) यथाख्यात चारित्र होय पण केवळज्ञान न होय?
उत्तर: प ब:– (१) चोथा अने पांचमा गुणस्थानवर्ती जीवोने सम्यग्दर्शन होय अने सकलचारित्र न
होय. (२) सम्यग्दर्शन होय अने सम्यग्ज्ञान न होय एम बने ज नहि; केम के ते बंने एक साथे ज होय छे.
(३) अगियारमा अने बारमा गुणस्थानवर्ती जीवोने यथाख्यात चारित्र होय अने केवळज्ञान न होय.
प्रश्न: प क:– एवा क्यां जीवो छे के जेने (१) चक्षुदर्शन होय अने सम्यग्दर्शन न होय? (२) एकेय
शरीर न होय? अने (३) मात्र तैजस अने कार्मण शरीर होय?
उत्तर: प क:– (१) चतुरिन्द्रय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय अने मिथ्याद्रष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोने चक्षुद्रर्शन होय
अने सम्यग्दर्शन न होय.
(२) सिद्धभगवंतोने एकेय शरीर न होय.
(३) विग्रहगतिवाळा जीवोने मात्र तैजस अने कार्मण शरीर होय.
प्रश्न: ६ अ:– (१) श्री सीमंधर परमात्माने सर्वांगेथी दिव्य ध्वनि छूटयो. (२) तेनुं श्रवण करतां एक
भव्य जीवे क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर्युं, (३) एक जीवने मतिज्ञान उपयोगनो अभाव थईने वर्तमानमां
श्रुतज्ञान उपयोग वर्ते छे अने (४) तेनो अभाव थतां ते केवळज्ञान प्राप्त करशे. –आ दरेक वाक्योमां क्यो क्यो
अभाव लागु पडे छे, ते लखो.
उत्तर: ६ अ:– (१) सीमंधर परमात्माने सर्वांगेथी दिव्यध्वनि छूट्यो, तेमां सीमंधर परमात्मा अने
सर्वांग वच्चे अत्यंताभाव छे, सर्वांग अने दिव्यध्वनि वच्चे अन्योन्याभाव छे.
(२) तेनुं श्रवण करतां एक भव्य जीवे क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर्युं. –तेमां दिव्यध्वनि अने क्षायिक
सम्यक्त्व वच्चे अत्यंताभाव छे.
(३) एक जीवने मतिज्ञान–उपयोगनो अभाव थईने वर्तमानमां श्रुतज्ञान–उपयोग वर्ते छे. त्यां
श्रुतज्ञानोपयोगरूप वर्तमान पर्यायनो मतिज्ञानोपयोगरूप पूर्वपर्यायमां अभाव ते प्रागभाव छे.
(४) ते श्रुतज्ञानोपयोगनो अभाव थतां ते केवळज्ञान प्राप्त करशे. –तेमां श्रुतज्ञानोपयोगरूप वर्तमान
पर्यायनो केवळज्ञानरूप आगामी पर्यायमां अभाव ते प्रध्वंसाभाव छे.
प्रश्न: ६ ब:– भव्यजीवे क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर्युं. –तेमां तेना छ कारको समजावो.
उत्तर : ६ ब:– भव्य जीवे ज्ञायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर्युं.–तेमां छ कारको आ प्रमाणे छे–
भव्य जीव स्वतंत्रपणे क्षायिक सम्यक्त्वनी प्राप्तिरूप क्रियानो कर्ता होवाथी (भव्य जीव) कर्ता छे.
क्षायिक सम्यक्त्व कर्तानुं ईष्ट होवाथी ते कर्म छे.
भव्य जीवे, साधकतम करण एवा पोताना सम्यक्त्वगुण वडे अथवा सम्यक्त्वगुणथी अभेद एवा पोताना
आत्मा वडे क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर्युं छे. माटे सम्यक्त्वगुण अथवा पोतानो आत्मा साधकतम करण छे.
भव्य जीवे क्षायिक सम्यक्त्वरूप कार्य पोताने माटे प्राप्त करीने पोताने दीधुं. माटे भव्य जीव पोते ज
संप्रदान छे.
ते भव्य जीवे क्षयोपशम सम्यक्त्वरूप पूर्व भावनो विनाश करी धु्रव एवा पोताना सम्यक्त्वगुणमांथी
अथवा अभेद अपेक्षाए पोताना आत्मामांथी, क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर्युं. माटे धु्रव एवो पोतानो
सम्यक्त्वगुण अथवा पोतानो आत्मा ते अपादान छे.
भव्य जीवे पोताना सम्यक्त्वगुणना आधारे अथवा अभेद अपेक्षाए पोताना आत्माना आधारे
क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर्युं. माटे पोतानो सम्यक्त्वगुण अथवा पोतानो आत्मा ते अधिकरण छे.
–आ रीते निश्चयथी पोताना छ कारको पोतामां ज छे.
प्रश्न: ६ क:– एक जीवे क्रोध टाळीने क्षमा करी–तेमां उत्पाद–व्यय–ध्रौव्य समजावो.
उत्तर: ६ क:– एक जीवे क्रोध टाळीने क्षमा करी.–तेमां उत्पाद–व्यय–ध्रौव्य आ प्रमाणे छे–
जीव जे समये क्षमा परिणामे ऊपज्यो ते उत्पाद, ते ज समये क्रोध परिणामनो विनाश थयो ते व्यय अने
ते ज वखते चारित्रगुण अपेक्षाए सद्रश टकी रह्यो ते ध्रौव्य. –आम एक ज समयमां उत्पाद–व्यय–ध्रौव्य थाय छे.