Atmadharma magazine - Ank 154
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: १८४ : ‘आत्मधर्म’ २४८२: श्रावण:
अपूर्व होय छे, छतां ते पुण्यनी जिनशासनमां महत्ता नथी, जिनशासनमां तो सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावोनी ज
महत्ता छे, ने तेनी ज उपासना करवानो जिनशासनमां उपदेश छे. जे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रने आराधे छे ते
ज जिनशासनने आराधे छे; जे रागने धर्म माने छे ते जिनशासननो भक्त नथी पण जिनशासननो विराधक
छे. माटे हे भाई! तुं तारा हितने माटे शुद्धभावने ज धर्म जाणीने शुद्धभाव प्रगट कर; शुद्धभाव विना व्रत–तप–
पूजा सर्वे निष्फळ छे, तेमां तारुं श्रेय नथी.
धर्मीने पुण्यभाव होय.पण पुण्य धर्म माने ते धर्मी न होय.
पूजादिषु पुण्यं एम कह्युं, त्यां पूजा–आदि कहेतां देव–गुरु–शास्त्रनी भक्ति, वंदना, वैयावच्च,
स्वाध्याय, जिनमंदिरनी प्रतिष्ठा वगेरे लेवा; ते बधायमां देव–गुरु–शास्त्र तरफ वलण जाय छे, एटले ते रागमां
पर तरफनो झूकाव छे, तेमां स्वभावनी एकता नथी, तेथी ते धर्म नथी पण पुण्य छे. जुओ बे हजार वर्ष
पहेलांं गीरनार उपर धरसेनाचार्यदेवे पुष्पदंत–भूतबलि मुनिओने भगवाननी परंपरानुं अपूर्व ज्ञान आप्युं;
अने ते पुष्पदंत–भूतबलि आचार्योए ते श्रुतने
षट्खंडागम रूपे गूंथ्युं. ने पछी चतुर्विध संघे श्रुतभक्तिनो
मोटो महोत्सव कर्यो. ए रीते धर्मात्माने श्रुतनी भक्तिनो भाव आवे छे, तेम ज मुनिवरोने आहार देवानो
भाव, जिनमंदिर कराववानो तथा तेनी प्रतिष्ठा कराववानो भाव, भक्तिनो भाव, जे भूमिमां तीर्थंकरो–संतो
विचर्या ते भूमिनी जात्रानो भाव–ईत्यादि शुभभाव पण थाय छे, पण धर्मी तेने धर्म मानता नथी; केमके ते
शुभभावथी स्वभाव साथे एकता नथी थती पण तेनुं वलण पर तरफ जाय छे, तेमां स्वभाव तरफनो झूकाव
नथी पण पर तरफनो झूकाव छे, तेनाथी पुण्य बंध थाय छे, पण मोक्ष थतो नथी; ते वखते धर्मात्माने
शुद्धआत्माना श्रद्धा–ज्ञानपूर्वक जेटलो शुद्धभाव वर्ते छे तेटलो धर्म छे. धर्मना भावमां बहारनुं–परनुं अवलंबन
न होय, तेमां तो एक शुद्धआत्मानुं ज अवलंबन छे. मोटा राजाने के रंकने, बधायने माटे धर्मनो आ एक ज
मार्ग छे. मोटा राजा हो के रंक हो, कोईने पण पुण्यथी धर्म थई जाय–एम बनतुं नथी. कोई पण जीवने माटे
पोताना शुद्ध चिदानंदस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान तथा एकाग्रतारूप शुद्धपरिणाम ते ज धर्म छे, ने पूजा–व्रतादिक
शुभराग ते बंधनुं ज कारण छे; ते धर्म नथी ने धर्मीने तेनो आदर नथी. जेने रागनो आदर छे ते धर्मी नथी.
रागना फळमां कांई स्वभाव साथे एकता थती नथी, तेना फळमां तो स्वर्गादिनो बाह्यसंयोग मळे छे. तेथी जेने
पुण्यनी प्रीति छे, तेने भोगनी प्रीति छे, अने ते ज पुण्यने धर्म माने छे. ए रीते लौकिकजनो ज पुण्यने धर्म कहे
छे. भगवान जिनेन्द्रदेवे तो रागादि रहित शुद्धभावने ज धर्म कह्यो छे.
जिनशासनमां धर्मनुं स्वरूप
“मोहक्षोभविहीनः परिणामः आत्मनः धर्मः” अर्थात् मोह–क्षोभरहित एवा आत्माना परिणाम ते धर्म
छे–एम भगवान जिनेन्द्रदेवोए जिनशासनमां कह्युं छे. जेने सात तत्त्वोनी विपरीत मान्यता छे, कुदेव–कुगुरुने
जे माने छे, तेने तो तीव्रमिथ्यात्वरूप मोह छे. अने क्रोध–मान–माया–लोभ, राग–द्वेष आदि भावो वडे
चैतन्यनो उपयोग डामाडोळ–अस्थिर थाय छे तेथी ते क्षोभ छे. आवा मोह ने क्षोभरहित जे सम्यक्त्व अने
स्थिरतारूप शुद्धपरिणाम छे ते ज धर्म छे. आत्मा साथे तेनी एकता होवाथी ते ज खरेखर आत्माना परिणाम
छे. पहेलांं चिदानंद स्वभावनी सम्यक श्रद्धावडे विपरीत श्रद्धारूप दर्शनमोहनो अभाव थतां–सम्यग्दर्शनरूप
शुद्धआत्मपरिणाम प्रगटे छे ते धर्म छे. तथा पछी स्वरूपमां एकाग्र थईने उपयोग स्थिर थता क्रोधादि रहित
वीतरागीशुद्ध परिणाम प्रगटे छे ते धर्म छे. आ रीते शुद्धआत्मस्वरूपनी द्रष्टि अने स्थिरतारूप वीतरागी
परिणाम ते ज धर्म छे एम जिनशासनमां जिनेन्द्रभगवाने कह्युं छे.
परजीवनां कार्य हुं करी शकुं, दयाना शुभपरिणाम वडे हुं बीजा जीवने मरतो बचावी शकुं–एवी जेनी
ऊंधी मान्यता छे तेने तो तीव्र मोह छे, तेने धर्म होतो नथी. परजीवने मारवा के बचाववानी क्रिया हुं करी
शकतो नथी, ते तेना ज कारणे मरे के जीवे छे, हुं तो ज्ञान