Atmadharma magazine - Ank 154
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण: २४८२ ‘आत्मधर्म’ : १८५ :
छुं, शुभवृत्ति पण मारा ज्ञाननुं स्वरूप नथी–आवा यथार्थ ज्ञानपूर्वक धर्मीने दया–अहिंसा वगेरेनी जे शुभवृत्ति
ऊठे तेने पण सर्वज्ञभगवाने धर्म कह्यो नथी; केम के ते शुभवृत्तिथी पण उपयोग क्षोभित थाय छे ने
स्वरूपस्थिरतामां भंग पडे छे. चैतन्यना आनंदनी लीनता छोडीने कोई पण पर पदार्थना आश्रये जे भाव थाय
ते धर्म नथी. जो पूजा के व्रतादिनो शुभराग ते धर्म होय तो तो सिद्धदशामांय ते भाव टकी रहेवा जोईए. –पण
एम थतुं नथी, केम के राग तो सिद्धदशानो बाधक छे, तेनो अभाव थाय त्यारे केवळज्ञान ने सिद्धदशा प्रगटे छे.
माटे सर्व परद्रव्योथी अत्यंत निरपेक्ष, –शुभरागथी पण पार, शुद्धचैतन्यपदना श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र सिवाय
बीजा कोई जैनधर्म नथी. आ रीते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धभावोने ज तारा परमश्रेयनुं कारण जाणीने
हे जीव! सर्व उद्यमथी तेनी उपासना कर.
धर्ममां आत्मानुं ज अवलंबन छे, रागनुं अवलंबन नथी. हे जीव!
धर्मनुं कारण अंतरमां शोध!
प्रश्न:– पुण्य ते धर्म नथी परंतु धर्मनुं कारण तो छे ने?
उत्तर:– अरे भाई, पुण्य तो राग छे ने धर्म तो आत्मानो वीतरागभाव छे; राग ते आत्माना
वीतरागी–धर्मनुं कारण केम थाय? वीतरागतानुं कारण राग होय नहीं. पुण्यभावथी चैतन्यना स्वभाव साथे
एकता थती नथी पण तेनाथी तो क्षोभ थाय छे ने बहारमां जडनो संयोग मळे छे, माटे ते पुण्य धर्मनुं कारण
नथी.
प्रश्न:– पुण्य ते परंपरा धर्मनुं निमित्त तो छे ने? ते व्यवहार–कारण तो छे ने?
उत्तर:– भाई, पुण्य तो विकार छे, ते धर्मनुं कारण छे ज नहीं. पहेलांं धर्मनुं साचुं कारण शुं छे ते तो
शोध! धर्मनुं निश्चयकारण जे राग वगरनो चिदानंदस्वभाव छे तेना उपर तो जोर देतो नथी, ने पुण्यने
व्यवहार–कारण कही–कहीने तेना उपर तुं जोर दे छे, तो तने खरेखर स्वभावनी रुचि नथी पण रागनी ज रुचि
छे; ‘कोई प्रकारे रागथी धर्म थाय!’ एवी तारी रागबुद्धि छे पण रागरहित चिदानंदस्वभाव उपर तारी द्रष्टि
नथी, अने ते विना धर्म थतो नथी. तने रागनी रुचि छे एटले तने तो धर्म ज नथी, तो धर्मनुं निमित्त कोने
कहेवुं? जे जीव रागनी रुचि छोडीने स्वभावनी रुचिवडे सम्यग्दर्शनादि धर्म प्रगट करे तेने पछी बीजामां धर्मना
निमित्तपणानो उपचार आवे; पण अज्ञानीने तो धर्म ज नथी एटले तेना रागमां तो धर्मना निमित्तपणानो
उपचार पण थतो नथी. अहो, अरागीधर्मने रागनुंज अवलंबन नथी, आत्मा पोते ज पोताना सम्यग्दर्शनादि
धर्मनुं अवलंबन छे, आत्माथी भिन्न बीजुं कोई अवलंबन छे ज नहि. –आम नक्की करीने अंतर्मुख थईने
आत्मस्वभावनुं अवलंबन ल्ये त्यारे ज धर्म थाय छे. अनादिथी जीवे बहारना अवलंबनमां ज धर्म मान्यो छे,
पण पोताना आत्मानुं अवलंबन कदी कर्युं नथी. आत्मानो स्वभाव एवो छे के तेनुं अवलंबन करतां भवनो
नाश थई जाय छे. अहो! आवो स्वभाव अंतरमां पड्यो छे ते तो अज्ञानीने देखातो नथी, –आवा स्वभावनुं
अवलंबन करुं तो धर्म थाय–एम अंतरनुं कारण तो तेने लक्षमां आवतुं नथी, ने ‘पुण्य ते व्यवहार–कारण तो
छे ने!’ एम राग उपरथी द्रष्टि खसती नथी. चिदानंद स्वभाव राग वगरनो छे तेनी रुचि करीने ते तरफ न
झूकतां, रागनी रुचि करीने तेमां ज लीन वर्ते छे तेथी अनंतकाळथी जीव संसारमां रखडे छे. चैतन्यस्वभाव ज
हुं छुं, राग हुं नथी–एम एकवार पण स्वभाव अने राग वच्चे त्रिराड पाडीने अंर्तस्वभाव तरफ झूकी जाय
तो अल्पकाळमां भवनो नाश थईने मुक्ति पामे. माटे आचार्यदेव कहे छे के हे भव्य! तुं आवा शुद्धभावरूप
जैनधर्मनी रुचि कर, ने रागनी रुचि छोड. जेने रागनी–पुण्यनी रुचि छे तेने जैनधर्मनी रुचि नथी.