समयसारमां आचार्यदेवे आत्माने ‘ज्ञायकमात्र’ कहीने ओळखाव्यो छे. आत्माने ज्ञायकमात्र कह्यो तेनो
अनंतगुणो आत्मामां अनादिअनंत रहेला छे परंतु ज्ञानादि गुणोथी विरुद्ध एवा रागादि विकारथी अने जडथी
आत्मस्वभावनी भिन्नता बताववा तेने ज्ञानमात्र कह्यो छे; ने ए रीते ज्ञानने लक्षण बनावीने अनंतगुणथी
अभेद आत्मा लक्षित कराव्यो छे. ज्ञानलक्षणथी लक्षित थता आत्मामां केवी केवी शक्तिओ छे तेनुं आ वर्णन
चाले छे. ओगणीसमी ‘परिणामशक्ति’ नुं वर्णन कर्युं, हवे वीसमी ‘अमूर्तत्व’ नामनी शक्ति वर्णवाय छे.
असंख्य प्रदेशमां क्यांय काळो–लीलो–लाल–पीळो के सफेद एवो कोई वर्ण नथी; सुगंध के दुर्गंध एवी कोई गंध
पण आत्मामां नथी, आत्माना असंख्यप्रदेशो आनंदरूपी रसथी भरेला छे परंतु तीखो–कडवो–कसायेलो–खाटो
के मीठो एवा कोई रस आत्मामां नथी; तेम ज लूखो के चीकणो–ठंडो के गरम–कठोर के कोमळ ने हलको के भारे
एवो कोई स्पर्श पण आत्मप्रदेशमां नथी. आत्मा वर्ण–गंध–रस–स्पर्शथी शून्य अमूर्तिक प्रदेशोवाळो छे. आवो
अमूर्तिक आत्मा ईन्द्रियोद्वारा देखातो नथी पण अतीन्द्रिय–ज्ञानद्वारा ज अनुभवमां आवे छे.
ओळखावता जाय छे. शक्तिने ओळखीने तेनुं सेवन करतां ते शक्तिनुं निर्मळ परिणमन थाय छे.
अमूर्त एवो तारो चैतन्य–आत्मा ने मूर्त एवां जड कर्मो ते बंने एकक्षेत्रे होवा छतां स्वभावथी सर्वथा जुदां