Atmadharma magazine - Ank 154
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: १८६ : ‘आत्मधर्म’ २४८२: श्रावण:
अनेकान्तमूर्ति भगवान
आत्मानी केटलीक शक्तिओ
• [२०] अमतत्व शक्त •





समयसारमां आचार्यदेवे आत्माने ‘ज्ञायकमात्र’ कहीने ओळखाव्यो छे. आत्माने ज्ञायकमात्र कह्यो तेनो
अर्थ एवो नथी के आत्मामां एक ज्ञानगुण ज छे ने बीजा कोई गुणो छे ज नहि; ज्ञान सिवाय बीजा पण
अनंतगुणो आत्मामां अनादिअनंत रहेला छे परंतु ज्ञानादि गुणोथी विरुद्ध एवा रागादि विकारथी अने जडथी
आत्मस्वभावनी भिन्नता बताववा तेने ज्ञानमात्र कह्यो छे; ने ए रीते ज्ञानने लक्षण बनावीने अनंतगुणथी
अभेद आत्मा लक्षित कराव्यो छे. ज्ञानलक्षणथी लक्षित थता आत्मामां केवी केवी शक्तिओ छे तेनुं आ वर्णन
चाले छे. ओगणीसमी ‘परिणामशक्ति’ नुं वर्णन कर्युं, हवे वीसमी ‘अमूर्तत्व’ नामनी शक्ति वर्णवाय छे.
‘कर्मबंधनना अभावथी व्यक्त करायेला, सहज, स्पर्शादि रहित एवा आत्मप्रदेशोस्वरूप अमूर्तत्वशक्ति
छे.’ –ज्ञानमात्र परिणमनमां आ शक्ति पण भेगी ज परिणमे छे.
आत्मा असंख्यप्रदेशी अखंड वस्तु छे. आत्माना प्रदेशो अमूर्त छे, तेनामां वर्ण गंध रस के स्पर्श नथी.
असंख्यप्रदेशे चैतन्य–सुख–वीर्य अने सत्ताथी भरेलो, तथा जडथी खाली एवो अमूर्त आत्मा छे. आत्माना
असंख्य प्रदेशमां क्यांय काळो–लीलो–लाल–पीळो के सफेद एवो कोई वर्ण नथी; सुगंध के दुर्गंध एवी कोई गंध
पण आत्मामां नथी, आत्माना असंख्यप्रदेशो आनंदरूपी रसथी भरेला छे परंतु तीखो–कडवो–कसायेलो–खाटो
के मीठो एवा कोई रस आत्मामां नथी; तेम ज लूखो के चीकणो–ठंडो के गरम–कठोर के कोमळ ने हलको के भारे
एवो कोई स्पर्श पण आत्मप्रदेशमां नथी. आत्मा वर्ण–गंध–रस–स्पर्शथी शून्य अमूर्तिक प्रदेशोवाळो छे. आवो
अमूर्तिक आत्मा ईन्द्रियोद्वारा देखातो नथी पण अतीन्द्रिय–ज्ञानद्वारा ज अनुभवमां आवे छे.
अहीं आचार्यदेवे आत्मप्रदेशोने ‘कर्मबंधना अभावथी व्यक्त करायेला’ एम कहीने निर्मळपर्यायने पण
भेगी भेळवीने अमूर्तत्व शक्ति वर्णवी छे. आ प्रमाणे दरेक शक्तिनी साथे ते ते शक्तिनुं निर्मळ परिणमन पण
ओळखावता जाय छे. शक्तिने ओळखीने तेनुं सेवन करतां ते शक्तिनुं निर्मळ परिणमन थाय छे.
मूर्त कर्म अने शरीरना संबंधमां रह्यो होवा छतां आत्मा कांई मूर्त थई गयो नथी, अत्यारे पण आत्मा
अमूर्तस्वभावी ज छे. भाई, मूर्त एवा कर्म के शरीर तारा अमूर्त आत्मा साथे जराय एकमेक थई गया नथी.
अमूर्त एवो तारो चैतन्य–आत्मा ने मूर्त एवां जड कर्मो ते बंने एकक्षेत्रे होवा छतां स्वभावथी सर्वथा जुदां