Atmadharma magazine - Ank 154
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण: २४८२ ‘आत्मधर्म’ : १८७ :
छे. सिद्धदशामां कर्मबंधनो सर्वथा अभाव थतां साक्षात् अमूर्तपणुं प्रगट थयुं ते बतावीने आचार्यदेव कहे छे के
आवो तारो अमूर्तस्वभाव छे. सिद्धभगवंतोने जे अमूर्त पणुं प्रगट्युं ते क्यांथी प्रगट्युं? पहेलेथी आत्मानो
अमूर्तस्वभाव हतो ते ज प्रगट्यो छे; पहेलांं आत्मा मूर्त हतो ने पछी कर्मो टळतां अमूर्त थयो–एम कांई नथी.
मूर्तना संबंधथी आत्माने मूर्त कहेवो ते तो उपचारथी ज छे, खरेखर कांई आत्मा मूर्त नथी. कर्मनी उपाधि
तरफ न जोतां सहज आत्म प्रदेशो अमूर्त छे. आत्माना अमूर्तपणानो निर्णय करे तोय मूर्तिक पदार्थो (शरीर–
कर्मो वगेरे) साथेनी एकताबुद्धि छूटी जाय; अने, रागादि विकार जो के अरूपी छे तो पण ते कर्मना संबंधनी
अपेक्षा राखे छे, तेथी ज्यां कर्मनो संबंध तोडी नांख्यो त्यां विकार साथेनी एकताबुद्धि पण छूटी जाय छे.
अज्ञानीने एम लागे छे के मारुं ज्ञान जडमां चाल्युं जाय छे अथवा तो जडनो रस (जुंबुनो स्वाद वगेरे) मारा
ज्ञानमां आवी जाय छे; परंतु खरेखर कांई अमूर्तिकज्ञान मूर्तपदार्थमां चाल्युं जतुं नथी, तेम ज मूर्त पदार्थनो
रस कांई अमूर्तिकज्ञानमां आवी जतो नथी. पण अज्ञानी ते स्वाद वगेरेने जाणतां त्यां ज राग करीने रागमां
रोकाई जाय छे ने ज्ञानना वास्तविक स्वादने भूली जाय छे–भिन्न ज्ञानने भूली जाय छे. ए रीते अज्ञानथी
तेने जड साथे एकत्वपणानी बुद्धि थई गई छे. ज्ञानी तो जाणे छे के मारुं अमूर्तिकज्ञान जडथी तो जुदुं ज छे, ने
रागथी पण जुदु छे. मारुं ज्ञान तो अतीन्द्रियआनंदना स्वादवाळुं छे.
चेतन के जड, अमूर्त के मूर्त, जेवी वस्तु होय तेवा ज तेना गुण–पर्यायो होय छे. आत्मा अमूर्तिक वस्तु
छे; ते द्रव्य अमूर्त, तेना बधा गुणो अमूर्त ने तेनी पर्यायो पण अमूर्त छे. जड–पुद्गलो मूर्त छे; ते द्रव्य मूर्त,
तेना गुणो मूर्त अने तेनी अवस्था (कर्म–शरीर वगेरे) पण मूर्त छे. आ रीते अमूर्तिक अने मूर्तिक बंने
वस्तुना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भाव त्रिकाळ जुदेजुदा छे. एकक्षेत्रावगाहीपणुं होवा छतां बंनेना प्रदेशो भिन्न भिन्न
छे. आत्माना प्रदेशो अमूर्तिक छे, ने शरीर–कर्म वगेरेना प्रदेशो मूर्त छे. आत्मा अमूर्तिक होवाथी तेनुं ज्ञान पण
अमूर्त छे, तेनुं सम्यग्दर्शन पण अमूर्त छे, तेनो आनंद पण अमूर्त छे;–आ रीते अतीन्द्रिय ज्ञाननो ज विषय
थवानो तेनो स्वभाव छे. आवा अमूर्त चिदानंद–स्वभावनी द्रष्टि करीने तेना अवलंबने मूर्त–कर्म वगेरे समस्त
पदार्थो साथेनो निमित्त नैमित्तिक संबंध ज्यां तूट्यो त्यां साक्षात् अमूर्त एवी सिद्धदशा थया विना रहे नहि.
एकेक शक्तिनुं वर्णन करतां ते शक्तिनी निर्मळ पर्यायने तेम ज आखा आत्मद्रव्यने साथे ने साथे
राखीने आ वात छे. द्रव्यनी द्रष्टिथी ज आ शक्तिओनी यथार्थ ओळखाण थाय छे, अने ए रीते शक्तिनी
यथार्थ ओळखाण थतां तेनी निर्मळपर्याय थाय छे. आ रीते द्रव्य–गुण ने निर्मळ पर्यायनी संधि छे. कोई कहे के
द्रव्य–गुणने मान्या पण निर्मळपर्याय न थई. –तो एम बने ज नहि; तेणे खरेखर द्रव्य–गुणने मान्या ज नथी.
निर्मळ पर्याय वगर द्रव्य–गुणने मान्या कोणे? माननार तो पर्याय छे. जे पर्याय द्रव्य तरफ झूकीने द्रव्यने माने
छे ते तो द्रव्य साथे अभेद थयेली निर्मळपर्याय ज छे.
अहीं अमूर्तत्वशक्तिमां पण “कर्मबंधना अभावथी व्यक्त कराएला... आत्मप्रदेशो” –एम कहीने
शक्तिनी निर्मळपर्याय बतावी छे; तेम ज पहेलांं संसारदशामां कर्मबंध निमित्तपणे छे एम पण बताव्युं छे.
आत्माने संसारपर्याय छे अने तेना निमित्तरूप कर्मनो संबंध पण छे–तेनी ना पाडनार तेना अभावनो प्रयत्न
नहीं करे. जो जीव अवस्थानी अशुद्धताने तेमज तेना निमित्तने जेम छे तेम ओळखे, तेमज पोतानी शुद्धशक्तिने
ओळखे, तो ज शुद्धशक्तिनुं अवलंबन करीने अवस्थामांथी अशुद्धता टाळीने शुद्धता प्रगट करे. आत्माने कर्मनो
संबंध तो कृत्रिम–उपाधिरूप छे, ने कर्मबंधना अभावथी व्यक्त थयेला आत्मप्रदेशो सहज स्वाभाविक छे. आवा
सहज आत्मप्रदेशोस्वरूप अमूर्तिकपणुं छे ते आत्मानो त्रिकाळ स्वभाव छे; एटले आत्मा त्रिकाळ वर्ण–गंध–
रस–स्पर्शथी रहित छे.
हे भाई! आ शरीर तो जड–मूर्तिक छे, वर्ण–गंध–