अमूर्त आत्मप्रदेशोमां शरीर–मन–वाणी के रागद्वेष भर्या नथी, पण ज्ञान–श्रद्धा–सुख–वीर्य वगेरे अनंत
शक्तिओ भरी छे. जेम गोळमां गळपण भर्युं छे पण कांई तेमां कडवाश नथी भरी, तेम आत्मामां ज्ञानादि
अनंती शक्तिओ भरेली छे, पण तेमां कांई विकार नथी भर्यो. विकार तो उपलक भाव छे, अंतरना ऊंडा
स्वभावमां विकार नथी. आत्मानी स्वभावशक्तिने पकडीने तेना आनंदना अनुभवमां लीन रहेतां आहार
तरफ वृत्ति ज न जाय तेनुं नाम उपवास छे, ने एवो तप ते धर्म छे. ‘आत्मा खोराक खाय छे ते तेणे छोडी
दीधो तेनुं नाम उपवास’ –एम अज्ञानीओ माने छे. पण भाई! आत्मा तो अमूर्त छे, ते मूर्तिक खोराकने
ग्रहतो पण नथी ने छोडतो पण नथी. आत्माने कांई एवा हाथ–पग नथी के मूर्तिक वस्तुने ग्रहे ने छोडे!
तेना आश्रये विकारनी उत्पत्ति थती नथी. आत्मानी कोई शक्ति विकारनी उत्पादक नथी.
करतां परनो आश्रय कर्यो तेथी विकारनी उत्पत्ति थई, माटे ते समयनो पराश्रयभाव पोते ज विकारनो उत्पादक
छे. शक्तिना आश्रये विकार थतो नथी माटे शक्ति विकारनी उत्पादक नथी. आ रीते आत्माना स्वभाव साथे
एकता कर तेने ज (–निर्मळ पर्यायने ज) अहीं आत्मानी पर्याय गणी छे, आत्मा साथे एकता न करे तेने (–
मलिनपर्यायने) खरेखर आत्मानी पर्याय गणता ज नथी. जो के ते थाय छे आत्मामां, परंतु आत्माना
शुद्धस्वभावनी मुख्यतामां ते अभाव समान ज छे.
नथी–एम जाणीने, शुद्धस्वभावनो आदर करतां अशुद्धतानो अभाव थईने शुद्ध सिद्धपद प्रगटे छे. हजी तो
अमूर्त आत्मानी श्रद्धा करवानी पण जे ना पाडे ने मूर्त कर्मवाळो ज आत्माने माने तो तेने सिद्धपद क्यांथी
प्रगटे?
जीव एकला व्यवहारने ज स्वीकारीने तेना आश्रयमां अटके छे ते तो मिथ्याद्रष्टि–अधर्मी छे. जे जीव शुद्ध–
आत्मस्वभावने द्रष्टिमां लईने तेनो आश्रय करे छे ते सम्यग्द्रष्टि–धर्मात्मा छे, तेने शुद्धद्रव्यना आश्रये पर्याय
पण निर्मळ थती जाय छे, अने कर्म साथेनो निमित्त संबंध छूटतो जाय छे.
आत्मानी शुद्धशक्तिनी द्रष्टिमां तो तेनो पण अभाव छे.
अतीन्द्रिय छे, ते स्वभावना अवलंबने ज धर्म थाय छे. आत्मामां आवी निर्मळ शक्तिओ तो त्रिकाळ छे ज,
पण पोते पोतानी शक्तिने सेवतो नथी एटले ते शक्ति ऊछळती नथी–निर्मळपणे परिणमती नथी. पर्यायने