सिद्ध अने अरिहंतभगवानमां जेवी सर्वज्ञता, जेवी प्रभुता, जेवो अतीन्द्रिय आनंद अने जेवुं
आचार्यदेव ओळखावे छे.
हवे केम मारुं माथुं ऊंचुं थशे!’ –एम डर नहि... मूंझा नहि... हताश न था... एकवार स्वभावनो हरख लाव...
स्वभावनो उत्साह कर... तेनो महिमा लावीने तारी ताकातने ऊछाळ!
पोताना आनंदस्वभावने देखतो नथी. ज्ञानी तो जाणे छे के हुं पोते ज आनंदस्वभावथी भरेलो छुं, क्यांय
बहारमां मारो आनंद नथी, के मारा आनंदने माटे कोई बाह्य पदार्थनी मारे जरूर नथी. आवुं भान होवाथी
ज्ञानी बहारमां पुण्य–पाप ठाठमां मूर्छाता नथी के मूंझाता नथी. पुण्यना ठाठ आवीने पडे त्यां ज्ञानी कहे छे के
अरे पुण्य! रहेवा दे... हवे सारा देखाव अमारे नथी जोवा, अमारे तो सादि–अनंत अमारा आनंदने ज जोवो
छे. अमारा आत्माना अतीन्द्रिय आनंद सिवाय बीजुं कांई अमने प्रिय नथी. अमारो आनंद अमारा
आत्मामां ज छे, आ पुण्यना ठाठमां क्यांय अमारो आनंद नथी. पुण्यनो ठाठ अमने आनंद आपवा समर्थ
नथी, तेमज प्रतिकूळताना गंज अमारा आनंदने लूंटवा समर्थ नथी. –आवी ज्ञानीनी अंर्तकथा होय छे. तेणे
स्वसंवेदनप्रत्यक्षथी पोताना आनंदनुं वेदन थयुं छे. आत्मानो एवो अचिंत्यस्वभाव छे के स्वसंवेदनप्रत्यक्षथी
ज ते जणाय; ‘स्वयं प्रत्यक्ष’ थाय एवो आत्मानो स्वभाव छे. स्वयंप्रत्यक्ष स्वभावनी पूर्णतामां परोक्षपणुं के
क्रम रहे एवो स्वभाव नथी, तेमज स्वयंप्रत्यक्ष आत्मामां वच्चे विकल्प–राग–विकार के निमित्तनी उपाधि गरी
जाय–एम पण नथी, एटले के व्यवहारना अवलंबने आत्मानुं संवेदन थाय एम बनतुं नथी. परनी अने
रागनी आड वच्चेथी काढी नांखीने, पोताना एकाकार स्वभावने ज सीधेसीधो स्पर्शीने आत्मानुं स्वसंवेदन
थाय छे, ए सिवाय बीजा कोई उपायथी आनंदस्वरूप भगवान आत्मानुं स्वसंवेदन थाय छे, ए सिवाय बीजा
कोई उपायथी आनंदस्वरूप भगवान आत्मानुं वेदन थतुं नथी.