प्रश्न:– १. सम्यक्त्व अने चारित्र कोने कहे छे अने तेने धारण करनार जैननुं स्वरूप शुं–ते विषे एक
साचा देव, निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी एकतास्वरूप मोक्षमार्ग जेने परिणम्यो छे अने जे अंतर्बाह्य निर्ग्रंथ
छे एवा मुनिराज ते साचा गुरु, अने मिथ्यात्व–राग–द्वेष रहित आत्मानो शुद्ध परिणाम ते साचो धर्म, –ए
प्रमाणे साचा देव–गुरु–धर्मनी द्रढ सम्यक् प्रतीति; (१) जीवादि सात तत्त्वोनी साची प्रतीति; (२) स्वपरनुं
यथार्थ श्रद्धान्; अने (४) निज शुद्धात्मानुं सम्यक् श्रद्धान;–आ लक्षणो सहित जे श्रद्धान होय छे ते निश्चय
सम्यग्दर्शन छे. सम्यग्दर्शन ते धर्म–चारित्र–मोक्षमार्गनुं मूळ छे. जेम मूळ विना वृक्ष होय नहि, तेम निश्चय
सम्यग्दर्शन विना धर्म होय नहि. निश्चय सम्यग्दर्शन चतुर्थ गुणस्थाने थाय छे, चोथा गुणस्थानथी मांडीने
सादि–अनंत सिद्ध दशामां पण तेनो सद्भाव होय छे. आ निश्चय सम्यग्दर्शन ते सम्यकत्व–अर्थात् श्रद्धा गुणनुं
परिणमन छे.
अत्यंत निर्विकार आत्मपरिणाम ते चारित्र छे. आवी निर्विकार स्वरूप–स्थिरतारूप चारित्र–पर्याय ते
चारित्रगुणनुं शुद्ध परिणमन छे.
तेमणे दर्शावेला मिथ्यात्वादि दोषाने जीतवाना उपायभूत निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्गना
अनुगामी ते जैन छे. ते जेटले अंशे मिथ्यात्वादि दोषोने जीते छे तेटले अंशे तेने जिन कहेवाय छे. अथवा, निज
शुद्धात्मद्रव्यना आश्रये मिथ्यात्व–राग–द्वेषादिने जीतनारी निर्मळ परिणति जेणे प्रगट करी छे ते जैन छे.
सम्यग्दर्शन वगर साचुं जैनपणुं होतुं नथी.