Atmadharma magazine - Ank 154
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण: २४८२ ‘आत्मधर्म’ : १७७ :
– श्री जैनदर्शन शिक्षणवर्ग: उत्तमश्रेणी –
परीक्षामां पुछायेला प्रश्नो
अने तेना जवाबो
• मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय ९ तथा जैनसिद्धान्त प्रवेशिका तथा उपादान – निमित्त दोहा •


प्रश्न:– १. सम्यक्त्व अने चारित्र कोने कहे छे अने तेने धारण करनार जैननुं स्वरूप शुं–ते विषे एक
निबंध लखो.
उत्तर:– १. शरीरआदि पर पदार्थोथी भिन्न अने पर पदार्थना लक्षे थता राग–द्वेषादि परभावोथी रहित
पोताना शुद्ध आत्मानी यथार्थ प्रतीति थवी ते सम्यक्त्व अर्थात् निश्चय सम्यग्दर्शन छे. (१) सर्वज्ञ वीतराग ते
साचा देव, निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी एकतास्वरूप मोक्षमार्ग जेने परिणम्यो छे अने जे अंतर्बाह्य निर्ग्रंथ
छे एवा मुनिराज ते साचा गुरु, अने मिथ्यात्व–राग–द्वेष रहित आत्मानो शुद्ध परिणाम ते साचो धर्म, –ए
प्रमाणे साचा देव–गुरु–धर्मनी द्रढ सम्यक् प्रतीति; (१) जीवादि सात तत्त्वोनी साची प्रतीति; (२) स्वपरनुं
यथार्थ श्रद्धान्; अने (४) निज शुद्धात्मानुं सम्यक् श्रद्धान;–आ लक्षणो सहित जे श्रद्धान होय छे ते निश्चय
सम्यग्दर्शन छे. सम्यग्दर्शन ते धर्म–चारित्र–मोक्षमार्गनुं मूळ छे. जेम मूळ विना वृक्ष होय नहि, तेम निश्चय
सम्यग्दर्शन विना धर्म होय नहि. निश्चय सम्यग्दर्शन चतुर्थ गुणस्थाने थाय छे, चोथा गुणस्थानथी मांडीने
सादि–अनंत सिद्ध दशामां पण तेनो सद्भाव होय छे. आ निश्चय सम्यग्दर्शन ते सम्यकत्व–अर्थात् श्रद्धा गुणनुं
परिणमन छे.
निश्चय सम्यग्दर्शन सहित निज शुद्धात्मस्वरूपमां चरवुं–रमवुं ते चारित्र छे; अथवा ज्ञानानंदस्वरूप
स्वभावमां मिथ्यात्व–राग–द्वेष रहित अकषाय प्रवृत्ति करवी ते चारित्र छे; अथवा मिथ्यात्व–अस्थिरता रहित,
अत्यंत निर्विकार आत्मपरिणाम ते चारित्र छे. आवी निर्विकार स्वरूप–स्थिरतारूप चारित्र–पर्याय ते
चारित्रगुणनुं शुद्ध परिणमन छे.
निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप सद्गुण वडे मिथ्यादर्शन–ज्ञान–चारित्र–स्वरूप दोषोने जे जीते तेने
जिन कहे छे. दोषोने संपूर्ण जीतनार वीतराग सर्वज्ञदेव ते पूर्ण जिन छे. वीतराग सर्वज्ञदेवना अनुयायी अर्थात्
तेमणे दर्शावेला मिथ्यात्वादि दोषाने जीतवाना उपायभूत निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्गना
अनुगामी ते जैन छे. ते जेटले अंशे मिथ्यात्वादि दोषोने जीते छे तेटले अंशे तेने जिन कहेवाय छे. अथवा, निज
शुद्धात्मद्रव्यना आश्रये मिथ्यात्व–राग–द्वेषादिने जीतनारी निर्मळ परिणति जेणे प्रगट करी छे ते जैन छे.
सम्यग्दर्शन वगर साचुं जैनपणुं होतुं नथी.