Atmadharma magazine - Ank 155
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४८२ ‘आत्मधर्म’ : २०१ :
अहो, एकेक शक्ति वर्णवीने आचार्यदेवे आखा समयसार भगवानने प्रसिद्ध कर्यो छे. एक शक्तिने पण
बराबर समजे तो आत्मानो स्वभाव लक्षमां आवी जाय, ने अनादिनी विकारनी गंध बेठी छे ते नीकळी जाय.
ज्ञायकस्वभाव तरफ वळतां विकारनो तो अंत आवी जाय छे केमके ते वस्तुना स्वरूपमां नथी. पण ज्ञायक
स्वभावना आश्रये जे अकर्तृत्वपरिणाम प्रगट्या तेनो कदी अंत न आवे, केम के ते तो वस्तुनुं स्वरूप ज छे,
तेथी जेम वस्तुनो अंत नथी आवतो तेम तेना स्वरूपमांथी प्रगटेला निर्मळ परिणामनो पण अंत नथी
आवतो. जुओ, अंतरना ज्ञानस्वभावमां एकाग्र थतां आनंदनो तो अनुभव थाय छे पण तेनी साथे कांई
रागनो अनुभव थतो नथी केम के आनंद तो आत्मानो स्वभाव छे, पण राग ते आत्मानो स्वभाव नथी. ए
ज प्रमाणे आनंदनी जेम बीजी अनंतशक्तिओ पण ज्ञाननी साथे ऊछळे छे, ते बधी आत्माना स्वभावरूप छे,
पण विकार आत्माना स्वभावरूप नथी. एटले तेनो तो अभाव थई जाय छे. आमां स्वभाव अने विकार
वच्चेनुं केटलुं स्पष्ट भेदज्ञान छे! –पण अज्ञानी विकारनी रुचिथी एवो आंधळो थई गयो छे के विकारथी जुदो
पोतानो आखो ज्ञायकस्वभाव अनंतशक्तिथी भरेलो छे ते तेने जरापण देखातो नथी.
आत्मामां अनंत शक्तिओ छे परंतु तेमां एवी तो कोई शक्ति नथी के परमां कार्य करे. डुंगरा खोदवा
वगेरेनी शक्ति आत्मामां नथी; अहीं तो ते उपरांत कहे छे के विकारने करे एवी पण आत्मानी कोई त्रिकाळी
शक्ति नथी. विकारने न करे एवी अकर्तृत्वशक्ति छे. कर्ताबुद्धिने लीधे अज्ञानी बीजामां पण कर्तापणुं देखे छे के
‘फलाणाए आवा मंदिरो बंधाव्या, अमुक माणसे शत्रुंजय वगेरे तीर्थनो उद्धार कर्यो.’ परंतु आत्मा ते बधायनो
अकर्ता छे–एवुं कर्तापणुं साधी–साधीने अनंता संत–मुनिओए आत्मानो उद्धार कर्यो, –तेने अज्ञानी जाणतो
नथी; तेथी ते कर्ताबुद्धिथी संसारमां रखडे छे.
प्रश्न:– रखडवानुं तो फक्त एक समय पूरतुं ज छे ने?
उत्तर:– ए तो ज्ञानी कहे छे के आत्मामां रखडवानो भाव (–विकार) एक समय पूरतो ज छे; परंतु
अज्ञानी तो ते एक समयना रखडवाना भावने ज पोतानुं स्वरूप माने छे, तेथी तेनी द्रष्टिमां तो ते एक
समयनुं नथी पण त्रिकाळ आखो आत्मा ते ज स्वरूप छे–एम तेने भासे छे, विकारथी जुदुं कांई स्वरूप तेने
भासतुं ज नथी. जो रखडवानो भाव एक समयनो ज छे एम खरेखर जाणे तो तो ते रहित त्रिकाळीस्वरूप छे
तेनो ख्याल आवी गयो, एटले विकार अने स्वभाव वच्चे भेद पडी गयो, भेदज्ञान थई गयुं, तेने तो विकार
तरफनुं वलण छूटीने स्वभाव तरफनुं वलण थई गयुं.
–आवी अंर्तदशा थाय त्यारे विकारने एक समय पूरतो जाण्यो कहेवाय. पण विकार तरफ ज जे वलण
राख्या करे छे तेणे विकारने खरेखर एक समय पूरतो नथी जाण्यो, तेणे तो विकारने ज आत्मा मान्यो छे. मारा
ज्ञायकआत्मामां विकार छे ज नहि, तेथी पर्यायना क्षणिक विकारनुं कर्तृत्व पण मारा स्वभावमां नथी–एम
अकर्तृत्वरूप ज्ञायकस्वभावने ओळखीने तेनी श्रद्धा करे तो ते स्वभावमां एकाग्रता वडे पर्यायमांथी विकारनो
तद्न अभाव करीने विकारनो साक्षात् अकर्ता थई जाय. –आवुं आ शक्ति समजवानुं तात्पर्य छे.
आत्मामां जेम ज्ञानस्वभाव त्रिकाळ छे तेम पुण्य–पापना अकर्तापणारूप स्वभाव पण त्रिकाळ छे.
त्रिकाळ अकर्तृत्वशक्तिथी भरेलो आत्मा छे तेने तो न मानवो ने पुण्य–पापनुं कर्तृत्व ज मानवुं ते द्रष्टि खोटी
छे. हुं ज्ञायकभाव छुं ने मारा ज्ञायकभावमां विकारनुं कर्तापणुं नथी–एम पहेलांं द्रष्टिथी विकारनुं कर्तृत्व खेंची
ल्ये, ने ज्ञायकस्वभावनी ज द्रष्टि राखे, तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे, ते धर्मनी शरूआत छे. आठ कर्मनी १४८
प्रकृतिमांथी कोईपण प्रकृति जे भावे बंधाय ते भाव विकार छे, ने आत्माना ज्ञायकभावथी ते जुदा छे, तथा
आत्मानो ज्ञायकभाव ते विकारथी निवृत्तस्वरूप छे; अहो! आवा निवृत्त ज्ञायकस्वभावमां सन्मुख थईने तेमां
ठरवा जेवुं छे... ते ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग छे. रागना कर्तृत्वमां ज रोकाईने रागथी जे धर्म
मानी रह्या छे तेने वीतरागी आत्मतत्त्वनी खबर नथी, संतोनी दशानी खबर नथी, जैनधर्मनी खबर नथी,
अने तेने खरेखर