उत्तर:– अरे भाई! विकार वगरना तारा ज्ञायकस्वभावनी आमां जाहेरात थाय छे.......... माटे गभरा
कषायनी मंदता करे तेना करतां स्वभाव समजवानो प्रयत्न करतां करतां कषायनी घणी वधारे मंदता सहेजे थई
जाय छे, वळी जो स्वभावने समजीने पुण्य–पापनो विच्छेद करशे तो तो वीतरागता अने केवलज्ञान थशे. –ते
तो करवा जेवुं ज छे, हजी तो पहेलेथी ज पुण्य–पापनुं कर्तापणुं स्वीकारे, ने पुण्य–पापथी भिन्न ज्ञायकस्वभाव
विकारनो अकर्ता छे तेनी श्रद्धा पण न करे तो ते विकारनो अभाव करीने वीतरागता क्यांथी करशे? माटे आ
वात समजीने तेनी श्रद्धा करवा जेवुं छे, ते सिवाय क्यांय जन्म–मरणनो आरो आवे तेम नथी.
उत्तर:– भाई रे! ज्ञायकस्वभावने चूकीने ‘पुण्य–पाप ते हुं’ एम अज्ञानथी ज मान्युं छे, तेथी पुण्य–
कर्तापणुं भास्युं छे. ते मान्यता फेरवी नांख के हुं तो ज्ञायक छुं, श्रद्धा–आनंद वगेरे अनंतशक्तिनो पिंड छुं.
क्षणिक विकार ते हुं नथी ने ते मारुं कर्तव्य नथी. ज्ञातापणाना भाव सिवाय बीजुं कांई मारुं कर्तव्य जगतमां
नथी. आत्मा ज्ञानमात्र भाव सिवाय बीजुं शुं करे? जो आत्मा परनुं करतो होय तो जगतनो उद्धार करवा
उपरथी सिद्धभगवान नीचे केम न ऊतरे? तेमने एवी वृत्ति ज नथी ऊठती केमके ते आत्माना स्वभावमां
नथी. जो सिद्धभगवानमां नथी तो आ आत्मामां आव्युं क्यांथी? सिद्धभगवानमां जे नथी ते आ आत्माना
स्वभावमां पण नथी. बस! आत्मानो स्वभाव ज अकर्तृत्व छे एटले विकारथी निवर्तवुं... निवर्तवुं... निवर्तवुं
ए ज तेनुं स्वरूप छे, स्वरूपमां ठरवुं... ठरवुं... ठरवुं एवुं आत्मानुं स्वरूप छे. सिद्धभगवानमां जे कार्य नथी ते
आ आत्मानुं पण कर्तव्य नथी. सिद्धभगवानथी पोताना स्वभावमां फेर माने छे ने विकारने आत्मस्वभाव
आ मारुं स्वरूप नथी, आ मारुं कर्तव्य नथी, हुं तो ज्ञायक ज छुं ने मारुं ज्ञायकतत्त्व आ विकारी लागणीनुं कर्ता
नथी. राग टाळीने मारा ज्ञायकस्वरूपमां ठरुं ते ज मारुं कर्तव्य छे. पुण्यनो शुभराग ते पण मारा धर्मनो
वोळावियो नथी पण लूटारो छे. विकार पोते अविकारीने मदद नथी करतो पण रोके छे माटे ते लूटारो छे. –माटे
ते मारुं कर्तव्य नथी. आम समस्त विकारना अकर्तारूप पोताना ज्ञायकस्वभावने जाणीने तेना सेवन वडे
विकारथी अत्यंत निवृत्तिरूप मोक्षपदने पामे छे.
आव्युं तेने कर्तापणानो (–मिथ्यात्वनो) काळ भगवाने जोयो नथी; ज्ञायकस्वभावनी सन्मुखताथी मिथ्यात्वनो
नाश करीने तेनी पर्यायमां अकर्तापणुं प्रगट थयुं छे, अने तेने ज सर्वज्ञनो निर्णय थयो छे, अने सर्वज्ञ पण ते
जीवनी पर्यायमां तेवुं अकर्तापणुं ज देखे छे. तुं मिथ्यात्वादिना अकर्तापणे परिणाम अने सर्वज्ञ तारुं कर्तापणुं
देखे एम बने नहीं. माटे तुं तारा स्वभावसन्मुख थईने पर्यायमां विकारनुं अकर्तापणुं प्रगट कर–एवुं
भगवानना उपदेशनुं तात्पर्य छे.