उत्तर:– आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, ते कर्ता थईने पोतानुं ज्ञानकार्य करे ते ज ज्ञानीनुं खरुं कर्म छे, अने ते
अज्ञानीने विकार साथे कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति छे तेनुं फळ संसार छे. पोताना त्रिकाळी ज्ञानानंदस्वभाव साथे
पर्यायनी एकता करतो नथी ने विकार ते ज हुं–एम विकारमां एकताबुद्धि करीने अज्ञानी तेनो कर्ता थाय छे, ए
ज संसारनुं कारण छे. ज्ञानी तो चैतन्यस्वभावमां एकता करीने जे निर्मळपर्याय थई तेना ज कर्ता थाय छे, ने
क्रोधादिथी पोताने भिन्न जाणे छे, –ए रीते भेदज्ञान वडे ते मुक्ति पामे छे.
उत्तर:– सम्यग्ज्ञाननो महिमा करीने मंगलाचरण कर्युं छे; केम के सम्यग्ज्ञान पोते मंगळस्वरूप छे तेथी
उत्तर:– अज्ञानथी उत्पन्न थयेली कर्ताकर्मनी प्रवृत्तिने सर्व तरफथी शमावी देनारुं छे अने जीवने मुक्ति
उत्तर:– हुं कर्ता छुं ने आ क्रोधादि भावो मारां कर्म छे–एवी मिथ्याबुद्धिथी अज्ञानी क्रोधादि साथे
उत्तर:– सम्यग्ज्ञानरूप ज्योति एवी छे के ज्ञानस्वभावमां एकाग्र थईने अज्ञानवडे ऊपजेली एवी
स्वीकारती नथी: विकारना कर्तृत्वने सर्व तरफथी छेदी नांखती, भेदज्ञानज्योति झणझणाट करती स्फुरायमान
थाय छे. ते ज्ञान–ज्योति एवी परम उदात्त छे के रागने आधीन जरापण थती नथी, वळी ते अत्यंत धीर छे–
अंदरना चैतन्यस्वरूपमां ते ठरती जाय छे, आकुळता रहित थईने शांत–रसमां ते लीन थती जाय छे अने
चैतन्यतत्त्वने समस्त परभावोथी ते भिन्न देखे छे, तथा विश्वने जाणवानो तेनो स्वभाव छे. आवी
भेदज्ञानज्योति जगतने मंगळरूप छे. ते ज्ञानज्योतिनो महिमा करवो ते मांगळिक छे.