मानता नथी. ज्ञानज्योति तो विकल्पथी जुदी ज छे, ते तो अंतरमां ठरती जाय छे, ने जेम जेम अंतरमां ठरती जाय
छे तेम तेम अनाकुळ शांतिनुं वेदन वधतुं जाय छे, ते ज ज्ञानज्योतिनुं कार्य छे. अहो! मार्ग तो अंतरनी शांतिनो
छे... आकुळतावाळो मार्ग नथी. ज्ञान तो शांत थईने अंदर ठरे के आकुळता करे? –आकुळता ते ज्ञाननुं कार्य नथी.
उत्तर:– पहेलांं अज्ञानदशामां ज्ञानने अने क्रोधाधिने भिन्न जाणतो न हतो एटले क्रोधादिमां तन्मय
ज्यारे, ‘हुं ज्ञानस्वरूप आत्मा छुं ने क्रोधादि मारा स्वरूपथी भिन्न परभावो छे, तेमनी साथे मारे एकता नथी’
–एवुं भेदज्ञान करीने जीव पोताना ज्ञानस्वरूपमां ज एकतापणे परिणम्यो त्यारे तेने अपूर्व ज्ञानज्योत प्रगटी.
ते ज्ञानज्योत धीर छे, गंभीर छे, उदार छे, अने तेणे अज्ञानअंधकारनो नाश कर्यो छे.
उत्तर:– आ ज्ञानज्योत ज जगतना जीवोने शरणरूप छे. अरे आ संसाररूपी रण–जंगलमां आमतेम
क्षणिक मोजां तो क्षणमां ठरी जशे, तेमां क्यांय शरण नथी. अहो! आ ज्ञानज्योति परमशांत अमृतरसनी
धाराथी भरेली छे, ते ज एक आत्माने शरणरूप छे.
उत्तर:– जीवनुं स्वरूप ज्ञान छे; ने ज्ञान ज तेनुं कार्य छे. ते ज्ञानस्वभावने क्रोधादि परभावोथी भिन्न जाणीने
उत्तर:– हुं ज्ञानस्वभाव छुं, ने क्रोधादि ते हुं नथी एम जाणीने, ज्ञानस्वभावमां ज निःशंकपणे पोतापणे
उत्तर:– जेम ज्ञान साथे आत्माने एकता छे तेम क्रोधादि साथे आत्माने एकता नथी पण भिन्ता छे,
उत्तर:– जीव ज्ञानस्वरूप होवाथी ज्ञानक्रिया ज तेनी स्वभावभूतक्रिया छे.
(१३) प्रश्न:– परभावभूतक्रिया कई छे?
उत्तर:– क्रोधादिक ते जीवना स्वभावरूप नहि होवाथी क्रोधादिक्रिया ते परभावभूतक्रिया छे.
(१४) प्रश्न:– भगवाने कई क्रियानो निषेध नथी कर्यो?
उत्तर:– ज्ञानक्रिया ते जीवना स्वभावभूत होवाथी भगवाने ते क्रियानो निषेध नथी कर्यो; अर्थात् ‘हुं
उत्तर:– क्रोधादिक्रियाओ परभावभूत होवाथी ते क्रियानो भगवाने निषेध कर्यो छे; अर्थात् ज्ञाननी जेम
संसारनुं कारण छे तेथी ते क्रिया निषेधवामां आवी छे.