Atmadharma magazine - Ank 155
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: २०४ : ‘आत्मधर्म’ : भादरवो : २४८२
के ‘अरे! पूरुं चैतन्यस्वरूप क्यारे प्राप्त थशे! क्यारे मुक्ति थशे!’
(६) प्रश्न:– ‘हुं क्यारे आ संसारथी छूटुं ने क्यारे मुक्ति पामुं!’ एवो आकुळतानो विकल्प तो धर्मीनेय
आवे छे?
उत्तर:– धर्मीनेय एवो विकल्प आवे पण ते ज्ञानज्योतिथी भिन्न छे, ज्ञानज्योतिमां ते विकल्प नथी.
धर्मात्मा ते विकल्पने पोतानी ज्ञानज्योतिना कार्यपणे स्वीकारता नथी एटले के विकल्प साथे ज्ञाननी एकता
मानता नथी. ज्ञानज्योति तो विकल्पथी जुदी ज छे, ते तो अंतरमां ठरती जाय छे, ने जेम जेम अंतरमां ठरती जाय
छे तेम तेम अनाकुळ शांतिनुं वेदन वधतुं जाय छे, ते ज ज्ञानज्योतिनुं कार्य छे. अहो! मार्ग तो अंतरनी शांतिनो
छे... आकुळतावाळो मार्ग नथी. ज्ञान तो शांत थईने अंदर ठरे के आकुळता करे? –आकुळता ते ज्ञाननुं कार्य नथी.
(७) प्रश्न:– सम्यग्ज्ञानज्योत क्यारे प्रगटी?
उत्तर:– पहेलांं अज्ञानदशामां ज्ञानने अने क्रोधाधिने भिन्न जाणतो न हतो एटले क्रोधादिमां तन्मय
थईने तेने पोतानुं कार्य मानतो ने तेना कर्तापणे परिणमतो हतो, त्यारे जीवने ज्ञानज्योत प्रगटी न हती; पण
ज्यारे, ‘हुं ज्ञानस्वरूप आत्मा छुं ने क्रोधादि मारा स्वरूपथी भिन्न परभावो छे, तेमनी साथे मारे एकता नथी’
–एवुं भेदज्ञान करीने जीव पोताना ज्ञानस्वरूपमां ज एकतापणे परिणम्यो त्यारे तेने अपूर्व ज्ञानज्योत प्रगटी.
ते ज्ञानज्योत धीर छे, गंभीर छे, उदार छे, अने तेणे अज्ञानअंधकारनो नाश कर्यो छे.
(८) प्रश्न:– जीवने शरणभूत कोण छे?
उत्तर:– आ ज्ञानज्योत ज जगतना जीवोने शरणरूप छे. अरे आ संसाररूपी रण–जंगलमां आमतेम
भटकता जीवोने आ भेदज्ञानज्योति सिवाय बीजुं कोई शरणरूप नथी. बहारना शुभाशुभ कार्योमां उत्साहनां
क्षणिक मोजां तो क्षणमां ठरी जशे, तेमां क्यांय शरण नथी. अहो! आ ज्ञानज्योति परमशांत अमृतरसनी
धाराथी भरेली छे, ते ज एक आत्माने शरणरूप छे.
(९) प्रश्न:– आ जीवने शुं करवा जेवुं छे?
उत्तर:– जीवनुं स्वरूप ज्ञान छे; ने ज्ञान ज तेनुं कार्य छे. ते ज्ञानस्वभावने क्रोधादि परभावोथी भिन्न जाणीने
तेमां ज्ञाननी एकता करवी ते ज करवा जेवुं छे. आ सिवाय दया–दानादि शुभभावो करे ते कांई आत्मानुं खरुं कार्य नथी,
तेमां क्यांय आत्माने शरणुं मळे तेम नथी. माटे ते रागादिथी आत्मानुं भेदज्ञान करवुं ते ज पहेलांं करवा जेवुं छे.
(१०) प्रश्न:– भेदज्ञाननी प्रवृत्ति शुं छे?
उत्तर:– हुं ज्ञानस्वभाव छुं, ने क्रोधादि ते हुं नथी एम जाणीने, ज्ञानस्वभावमां ज निःशंकपणे पोतापणे
वर्तवुं ने क्रोधादिमां एकपणे–पोतापणे न वर्तवुं पण तेनाथी भिन्नपणे वर्तवुं ते भेदज्ञाननी प्रवृत्ति छे.
(११) प्रश्न:– कई रीते भेदज्ञान थाय छे?
उत्तर:– जेम ज्ञान साथे आत्माने एकता छे तेम क्रोधादि साथे आत्माने एकता नथी पण भिन्ता छे,
माटे ते क्रोधादिमां एकताबुद्धि छोडवी ने ज्ञानस्वभावमां एकता करवी. –आ रीते भेदज्ञान थाय छे.
(१२) प्रश्न:– जीवना स्वभावभूतक्रिया कई छे?
उत्तर:– जीव ज्ञानस्वरूप होवाथी ज्ञानक्रिया ज तेनी स्वभावभूतक्रिया छे.
(१३) प्रश्न:– परभावभूतक्रिया कई छे?
उत्तर:– क्रोधादिक ते जीवना स्वभावरूप नहि होवाथी क्रोधादिक्रिया ते परभावभूतक्रिया छे.
(१४) प्रश्न:– भगवाने कई क्रियानो निषेध नथी कर्यो?
उत्तर:– ज्ञानक्रिया ते जीवना स्वभावभूत होवाथी भगवाने ते क्रियानो निषेध नथी कर्यो; अर्थात् ‘हुं
ज्ञानस्वरूप छुं’ एवुं भान करीने तेमां ज्ञाननी लीनतारूप जे ज्ञानक्रिया छे ते क्रिया तो मोक्षनुं कारण छे, तेथी ते
क्रिया निषेधवामां नथी आवी.
(१५) प्रश्न:– तो कई क्रिया निषेधवामां आवी छे?
उत्तर:– क्रोधादिक्रियाओ परभावभूत होवाथी ते क्रियानो भगवाने निषेध कर्यो छे; अर्थात् ज्ञाननी जेम
क्रोधादि परभावो साथे पण एकता मानीने अज्ञानीजीव निःशंकपणे ते क्रोधादिमां पोतापणे प्रवर्ते छे, ते क्रिया
संसारनुं कारण छे तेथी ते क्रिया निषेधवामां आवी छे.