वीतरागभाव ते ज सर्वे शास्त्रोनुं तात्पर्य छे, ते ज जिनशासन छे, ने तेने ज संतो धर्म कहे छे; वच्चे राग रही
जाय ते तात्पर्य नथी, ते जिनशासन नथी, तेने संतो धर्म कहेता नथी.
उत्तर:– पुण्य मिथ्याद्रष्टिना हो के सम्यग्द्रष्टिना हो, ते कोई धर्म नथी, ते आस्रव छे. समयसारमां कहे छे
ते धर्म होत–अमृत होत–तो मुनिवरो तेने छोडीने निर्विकल्प केम थात? माटे समजो के धर्मीनो राग ते पण
पुण्य छे, पण धर्म नथी. धर्म तो वीतरागी शुद्ध भाव ज छे. अहो, एक ज नियमरूप ने एक ज धारा प्रवाहरूप
जैनमार्ग त्रिकाळ चाली रह्यो छे.
ज हितरूप मानी ल्ये तो रागथी जुदो पडीने वीतरागतानो पुरुषार्थ ते कोना लक्षे करशे? माटे आ धर्मना मूळ
पायानी वात छे.
पण जेनी द्रष्टि ज राग उपर छे, जे रागने ज धर्म के संवर–निर्जरानुं कारण माने छे तेने तो शुभराग वखते
पण एकांते अधर्म छे, धर्मनो अंख पण तेने नथी. अने समकितीने पण जे राग छे ते कांई धर्म नथी. राग
वखते तेने जे अरागी द्रष्टि, अरागी ज्ञान ने अरागी चारित्र छे ते ज धर्म छे. जो शुभराग ते धर्म होय के के
तेनाथी धर्म थतो होय तो ते राग छोडवानुं रह्युं ज नहि! –एटले श्रद्धामां रागनुं उपादेयपणुं थतां मिथ्याश्रद्धा
थई. मिथ्याश्रद्धा ज मोटो अधर्म अने अनंत संसारनुं मूळ छे. तेनो अभाव थईने वास्तविक धर्म केम थाय ते
अहीं बतावे छे. शुभराग तो विकार छे, औदयिकभाव छे, आस्रव–बंधनुं कारण छे एटले संसारनुं कारण छे.
चिदानंदस्वभावमां एकाग्र थतां राग रहित सम्यक्श्रद्धा, ज्ञान ने आनंदना अनुभवरूप जे शुद्धवीतरागभाव
प्रगट्यो ते धर्म छे; आ धर्मथी कर्म बंधाता नथी, पूर्वे बंधायेला कर्मो पण तेनाथी खरी जाय छे; ए रीते
परम आनंदरूप मोक्षदशा प्रगटे छे. आनुं नाम जैनधर्म छे. आवा जैनधर्मने जाणीने भवना नाश माटे तेनुं
आराधन करो......... एवो उपदेश छे.
शुभथी पण तुं संसारमां ज रखडयो. माटे जैनधर्मनो उपदेश छे के रागरहित शुद्धभावने ज तमे धर्म जाणो,
राग ते धर्म नथी एम समजो. जिनेन्द्र भगवंतोए जिनशासनमां आवो उपदेश कर्यो छे, संतो पण आम ज कहे
छे, शास्त्रोमां पण आ ज आशय भर्यो छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–