Atmadharma magazine - Ank 155
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४८२ ‘आत्मधर्म’ : २०९ :
थाय, ने राग–द्वेष–मोह रहित थईने पोताना शुद्धस्वरूपमां ज स्थिर रहे, –एवा शुद्धपरिणाम ते आत्मानो धर्म
छे, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रणे तेमां आवी जाय छे, पण राग तेमां नथी आवतो. आ शुद्धरत्नत्रयरूप
वीतरागभाव ते ज सर्वे शास्त्रोनुं तात्पर्य छे, ते ज जिनशासन छे, ने तेने ज संतो धर्म कहे छे; वच्चे राग रही
जाय ते तात्पर्य नथी, ते जिनशासन नथी, तेने संतो धर्म कहेता नथी.
समकितीना पुण्य ते पण धर्म नथी
प्रश्न:– मिथ्याद्रष्टिना पुण्य ते धर्म नहीं पण समकितीना पुण्य ते तो धर्म छे ने!
उत्तर:– पुण्य मिथ्याद्रष्टिना हो के सम्यग्द्रष्टिना हो, ते कोई धर्म नथी, ते आस्रव छे. समयसारमां कहे छे
के छठ्ठा गुण स्थानवर्ती भावलिंगी संतने व्यवहारप्रति–क्रमणादिनो जे शुभ विकल्प छे ते निश्चयथी झेर छे. जो
ते धर्म होत–अमृत होत–तो मुनिवरो तेने छोडीने निर्विकल्प केम थात? माटे समजो के धर्मीनो राग ते पण
पुण्य छे, पण धर्म नथी. धर्म तो वीतरागी शुद्ध भाव ज छे. अहो, एक ज नियमरूप ने एक ज धारा प्रवाहरूप
जैनमार्ग त्रिकाळ चाली रह्यो छे.
– धर्मना मूळ पायानी वात!
अहो! एक वार आवी द्रष्टि तो करो... आत्मानो वास्तविक स्वभाव शुं चीज छे ते लक्षमां तो ल्यो. राग
रहित चिदानंदस्वभावी हुं छुं–एवुं आत्मस्वभावनुं यथार्थ लक्ष हशे तो ते जातनो पुरुषार्थ ऊपडशे. पण रागने
ज हितरूप मानी ल्ये तो रागथी जुदो पडीने वीतरागतानो पुरुषार्थ ते कोना लक्षे करशे? माटे आ धर्मना मूळ
पायानी वात छे.
मिथ्याद्रष्टिने एकांत अधर्म छे!
वीतरागभाव ते ज भवनाशक धर्म छे.
समकितीनी द्रष्टि शुद्ध चैतन्यस्वभावमां झूकी गई छे, रागना एक अंशनो पण तेनी द्रष्टिमां स्वीकार
नथी; आवी द्रष्टिना जोरपूर्वक समकितीने शास्त्रस्वाध्यायादि शुभ प्रसंग वखते अशुभनी निर्जरा थाय छे ते
अपेक्षाए समकितीने स्वाध्यायादि शुभथी पण निर्जरा थवानुं कह्युं छे, ने उपचारथी तेने पण धर्म कहेवाय छे.
पण जेनी द्रष्टि ज राग उपर छे, जे रागने ज धर्म के संवर–निर्जरानुं कारण माने छे तेने तो शुभराग वखते
पण एकांते अधर्म छे, धर्मनो अंख पण तेने नथी. अने समकितीने पण जे राग छे ते कांई धर्म नथी. राग
वखते तेने जे अरागी द्रष्टि, अरागी ज्ञान ने अरागी चारित्र छे ते ज धर्म छे. जो शुभराग ते धर्म होय के के
तेनाथी धर्म थतो होय तो ते राग छोडवानुं रह्युं ज नहि! –एटले श्रद्धामां रागनुं उपादेयपणुं थतां मिथ्याश्रद्धा
थई. मिथ्याश्रद्धा ज मोटो अधर्म अने अनंत संसारनुं मूळ छे. तेनो अभाव थईने वास्तविक धर्म केम थाय ते
अहीं बतावे छे. शुभराग तो विकार छे, औदयिकभाव छे, आस्रव–बंधनुं कारण छे एटले संसारनुं कारण छे.
चिदानंदस्वभावमां एकाग्र थतां राग रहित सम्यक्श्रद्धा, ज्ञान ने आनंदना अनुभवरूप जे शुद्धवीतरागभाव
प्रगट्यो ते धर्म छे; आ धर्मथी कर्म बंधाता नथी, पूर्वे बंधायेला कर्मो पण तेनाथी खरी जाय छे; ए रीते
शुद्धपरिणामरूप धर्मथी आस्रव–बंध अटके छे; संवर–निर्जरा थाय छे, अने तेनाथी ज सर्व कर्मनो अभाव थईने
परम आनंदरूप मोक्षदशा प्रगटे छे. आनुं नाम जैनधर्म छे. आवा जैनधर्मने जाणीने भवना नाश माटे तेनुं
आराधन करो......... एवो उपदेश छे.
हे जीव! एकवार तुं विचार तो कर.
हे जीव! तारा चिदानंदतत्त्वना भान विना शुभभाव पण अनंतवार तुं करी चूक्यो, परंतु अंशमात्र धर्म
न थयो, तारो संसार तो एम ने एम ऊभो ज रह्यो. तें शुभरागने धर्म मान्यो, परंतु शुभ करवा छतांय ते
शुभथी पण तुं संसारमां ज रखडयो. माटे जैनधर्मनो उपदेश छे के रागरहित शुद्धभावने ज तमे धर्म जाणो,
राग ते धर्म नथी एम समजो. जिनेन्द्र भगवंतोए जिनशासनमां आवो उपदेश कर्यो छे, संतो पण आम ज कहे
छे, शास्त्रोमां पण आ ज आशय भर्यो छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–