सेवे छे एटले के संसारना ज कारणने सेवे छे, पण मोक्षना कारणरूप वीतरागी धर्मने ते सेवतो नथी, –एम
हवेनी गाथामां आचार्यदेव कहेशे.
–ते मुख्य छे, साक्षात् पूर्णवीतरागताना अभावमां धर्मीने शुभराग होय छे त्यारे अशुभ टळवानी अपेक्षाए
एकदेश वीतरागता गणीने तेने उपचारथी धर्म कह्यो छे; परंतु तेने तो ते ज वखते अनुपचार धर्मनो अंश पण
कह्यो ते एम बताववा माटे छे के त्यां ते वखते अनुपचाररूप यथार्थ धर्म (सम्यग्दर्शनादि) वर्ते छे. आ यथार्थ
धर्मने तो जे जाणतो नथी, ने शुभरागने ज खरेखर धर्म मानीने तेमां ज संतुष्ट छे तेने धर्मनी प्राप्ति थती
नथी. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धभाव ते ज खरो धर्म छे, ने तेनी ज प्राप्तिनो जिनशासनमां उपदेश छे.
आवो धर्म ते भवनो नाशक ने मोक्षनो दातार छे, माटे हे भव्य जीवो! तमे आदरपूर्वक आवा जैनधर्मनुं सेवन
करो.
पर्याय होय ते कया द्रव्यनी, कया गुणनी अने केवी जातनी छे ते लखो.
(१) केवळज्ञान (२) काळ (३) अचेतनत्त्व (४) पडछायो (५) स्थिति हेतुत्व (६) समुद्घात (७) लोभ.
(१) केवळज्ञान: ते पर्याय छे; जीवद्रव्यना ज्ञानगुणनी स्वभावअर्थपर्याय छे;
(२) काळ: ते द्रव्य छे, परिणमनहेतुत्व तेनो विशेषगुण छे.
(३) अचेतनत्व: ते गुण छे; पुद्गलादि पांच अजीव–द्रव्योनो प्रतिजीवी गुण छे.
(४) पडछायो: ते पर्याय छे, पुद्गलद्रव्यना रंग–गुणनी विभाव अर्थपर्याय छे.
(५) स्थितिहेतुत्व: ते गुण छे; अधर्मास्तिकायनो विशेषगुण छे तथा अनुजीवी छे.
(६) समुद्घात: ते पर्याय छे; जीवद्रव्यना प्रदेशत्वगुणनी विभाव व्यंजनपर्याय छे.
(७) लोभ: ते पर्याय छे; जीवद्रव्यना चारित्रगुणनी विभाव अर्थपर्याय छे.