Atmadharma magazine - Ank 155
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: २१० : ‘आत्मधर्म’ : भादरवो : २४८२
चारित्ररूप शुद्धभावने जे जाणतो नथी अने पुण्यने ज धर्म मानीने जे सेवे छे ते जीव भोगना हेतरूप धर्मीने ज
सेवे छे एटले के संसारना ज कारणने सेवे छे, पण मोक्षना कारणरूप वीतरागी धर्मने ते सेवतो नथी, –एम
हवेनी गाथामां आचार्यदेव कहेशे.
भवनो नाशक ने मोक्षनो दातार – एवो जैनधर्म छे.
राग धर्म न होवा छतां तेने उपचारथी धर्म कह्यो.
– पण ते उपचार क्यारे?
ज्ञानीना शुभने उपचारथी धर्म कह्यो होय त्यां अज्ञानी तेने ज वळगे छे, पण ते उपचार कई रीते छे
तेने समजतो नथी. मुख्यना अभावमां बीजामां तेनो उपचार करवो ते व्यवहार छे, पूर्ण वीतरागता ते धर्म छे,
–ते मुख्य छे, साक्षात् पूर्णवीतरागताना अभावमां धर्मीने शुभराग होय छे त्यारे अशुभ टळवानी अपेक्षाए
एकदेश वीतरागता गणीने तेने उपचारथी धर्म कह्यो छे; परंतु तेने तो ते ज वखते अनुपचार धर्मनो अंश पण
वर्ते छे, पूर्ण वीतरागतानी द्रष्टिपूर्वक एकदेश वीतरागता वर्ते छे, ते ज धर्म छे. ज्ञानीना शुभने उपचारथी धर्म
कह्यो ते एम बताववा माटे छे के त्यां ते वखते अनुपचाररूप यथार्थ धर्म (सम्यग्दर्शनादि) वर्ते छे. आ यथार्थ
धर्मने तो जे जाणतो नथी, ने शुभरागने ज खरेखर धर्म मानीने तेमां ज संतुष्ट छे तेने धर्मनी प्राप्ति थती
नथी. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धभाव ते ज खरो धर्म छे, ने तेनी ज प्राप्तिनो जिनशासनमां उपदेश छे.
आवो धर्म ते भवनो नाशक ने मोक्षनो दातार छे, माटे हे भव्य जीवो! तमे आदरपूर्वक आवा जैनधर्मनुं सेवन
करो.
(गाथा ८३ पूरी)
जैनं जयति शासनम्।
[टाईटल पृष्ठ २ नो शेषांश]
सुख वगेरे; अने पुद्गलमां स्पर्श–रस–गंध–वर्ण वगेरे;
(७) अन्योन्य–अभाव:– एक पुद्गलनी वर्तमान–पर्यायमां बीजा पुद्गलोनी वर्तमानपर्यायनो अभाव
छे तेने अन्योन्य–अभाव कहे छे.
प्रश्न:– (६) :– नीचे लखेला पदार्थो द्रव्य छे–गुण छे के पर्याय छे? ते बतावो: तेमां जे द्रव्य होय
तेनो विशेष गुण लखो; जे गुण होय ते कया द्रव्यनो छे? तथा अनुजीवी छे के प्रतिजीवी ते लखो; अने जे
पर्याय होय ते कया द्रव्यनी, कया गुणनी अने केवी जातनी छे ते लखो.
(१) केवळज्ञान (२) काळ (३) अचेतनत्त्व (४) पडछायो (५) स्थिति हेतुत्व (६) समुद्घात (७) लोभ.
उत्तर (६) :–
(१) केवळज्ञान: ते पर्याय छे; जीवद्रव्यना ज्ञानगुणनी स्वभावअर्थपर्याय छे;
(२) काळ: ते द्रव्य छे, परिणमनहेतुत्व तेनो विशेषगुण छे.
(३) अचेतनत्व: ते गुण छे; पुद्गलादि पांच अजीव–द्रव्योनो प्रतिजीवी गुण छे.
(४) पडछायो: ते पर्याय छे, पुद्गलद्रव्यना रंग–गुणनी विभाव अर्थपर्याय छे.
(५) स्थितिहेतुत्व: ते गुण छे; अधर्मास्तिकायनो विशेषगुण छे तथा अनुजीवी छे.
(६) समुद्घात: ते पर्याय छे; जीवद्रव्यना प्रदेशत्वगुणनी विभाव व्यंजनपर्याय छे.
(७) लोभ: ते पर्याय छे; जीवद्रव्यना चारित्रगुणनी विभाव अर्थपर्याय छे.