Atmadharma magazine - Ank 155
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: २१२ : ‘आत्मधर्म’ : भादरवो : २४८२
‘छे कर्म अष्ट विनष्ट, अष्ट महागुणे संयुक्त छे, शाश्वत, परम ने लोक–अग्र विराजमान श्री सिद्ध छे.’
आ रीते बहिरात्मा, अंतरात्मा अने परमात्मा–ए त्रणे प्रकारना आत्माओने ओळखीने, तेमांथी
बहिरात्मपणाने तो हेय जाणीने छोडवुं, अने अंतरात्मा थईने, परमात्मस्वरूपना ध्यान वडे परमात्मपणुं प्रगट करवुं.
प्रश्न:– (२) : सात तत्त्वोनां नाम लखो, अने तेमांथी जीवतत्त्वनी, बंधतत्त्वनी अने
संसारतत्त्वनी केवी भूल अज्ञानी करे छे ते लखो.
उत्तर:– (२) :–
सबंधमां अज्ञानी जीव नीचे प्रमाणे भूल करे छे–
जीवतत्त्वनी भूल: जीवनुं स्वरूप तो चेतना अर्थात् दर्शनज्ञानमय छे, अमूर्तिक छे ने शरीरादि अजीवथी
ते भिन्न छे. जीवना आवा स्वरूपने तो मिथ्याद्रष्टि जीव जाणतो नथी ने शरीरने ज आत्मा माने छे; अनुकूळ
सामग्रीना संयोगथी ते पोताने सुखी माने छे ने प्रतिकूळ सामग्रीना संयोगथी ते पोताने दुःखी माने छे. वळी
हुं निर्धन, हुं धनवान, हुं रोगी, हुं निरोगी, हुं राजा, हुं रंक–ए प्रमाणे तेने जीव माने छे, तथा शरीरनो जन्म
जतां जीवनी उत्पत्ति माने छे, तथा शरीरनो वियोग थतां जीवनो ज नाश माने छे; ए प्रमाणे शरीरादि बाह्य
पदार्थोनी अवस्थाने जीवनी ज अवस्था जाणे छे, अथवा रागादिने ज आत्मानुं स्वरूप माने छे, पण ते
शरीरादिथी तद्न भिन्न अने रागरहित शुद्धचैतन्यस्वरूप जीवने ते अज्ञानी ओळखतो नथी, ते जीवतत्त्वनी
भूल छे. (जीवतत्वनी भूलमां अजीव वगेरे तत्त्वोनी भूल पण भेगी होय ज.)
बंधतत्त्वनी भूल:– मिथ्यात्व तेमज हिंसादिक तीव्र कषायरूप भावो ते पाप छे, ने दयादिक मंदकषायरूप
भावो ते पुण्य छे. आ पाप तेमज पुण्य–बंने भावो जीवने दुःखकारक अने बंधननुं ज कारण छे; छतां
मिथ्याद्रष्टि जीव ते बंनेने बंधनुं कारण न जाणतां तेमांथी पुण्यने ते धर्मनुं कारण माने छे, एटले के बंधना
कारणने मोक्षनुं कारण मानीने ते सेवे छे. जेम बेडी सोनानी हो के लोढानी हो, पण ते बंधनकर्ता ज छे, तेने
पुण्य अने पाप ए बंने बंधनकर्ता ज छे, छतां अज्ञानी मात्र पापने ज बंधनुं कारण जाणीने छोडवा जेवो माने
छे, पण पुण्यने ते बंधनुं कारण नथी जाणतो पण मोक्षनुं कारण माने छे, ते तेनी बंधतत्त्वनी भूल छे. वळी
पुण्य–पापना निमित्ते जे बाह्यसामग्रीनो संयोग थाय तेमां पण अज्ञानी जीव पोताना ज्ञानानंद अबंधस्वरूपने
भूलीने प्रीति–अप्रीति करे छे; पण पुण्य–पापना बंधनथी रहित एवा पोताना शुद्धज्ञानस्वरूपने ओळखा नथी,
ने बंधने ज पोतानुं स्वरूप माने छे, ते बंधतत्त्वनी भूल छे.
संवरतत्त्वनी भूल:– सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे संवर छे ते आत्माने कल्याणनुं कारण छे अर्थात् ते
मोक्षनुं कारण छे. पण अज्ञानी जीव ते सम्यग्दर्शनादिने कष्टदायक माने छे, आत्माना स्वरूपनी समजण वगेरे
करवी ते तो तेने दुःख अने कष्टरूप लागे छे, तेना श्रवणमां ने तेना उपायमां तेने कंटाळो आवे छे, ने विषयकषायो
तेने ईष्ट लागे छे; तेथी ते सम्यग्दर्शनादि संवरतत्त्वनो उपाय करतो नथी. आ तेनी संवरतत्त्वनी भूल छे.
आ रीते जीवादि तत्त्वोनी भूल ते मिथ्यात्व छे, ने ते मिथ्यात्वने लीधे जीव घोर दुःखमय संसारमां
परिभ्रमण करी रह्यो छे.
प्रश्न:– (२) बः– सात तत्त्वोमांथी केटला तत्त्वो द्रव्यरूप छे, केटला निर्मळपर्यायरूप छे अने केटला
मलिन पर्यायरूप छे–ते जणावो.
उत्तर:– (२) :–
सात तत्त्वोमांथी जीव ने अजीव ए बे तत्त्वो द्रव्यरूप छे; संवर–निर्जरा ने मोक्ष ए त्रणे तत्त्वो निर्मळ–
पर्यायरूप छे, तेमांथी संवर–निर्जरा ते साधकरूप (अधूरी) निर्मळपर्याय छे, ने मोक्ष ते साध्यरूप (पूरी)
निर्मळदशा छे; आस्रव अने बंध ए बे तत्त्वो मलिनपर्यायरूप छे. (पुण्य–पाप ए बंनेनो समावेश आस्रव–
बंधमां थई जाय छे.)
प्रश्न:– (३) :– नीचेना शब्दोनी व्याख्या लखो–