‘समस्त, कर्मथी करवामां आवेलां, अने ज्ञातृत्वमात्रथी जुदां जे परिणामो ते परिणामोना करणना
परिणमन पण भेगुं वर्ते छे. ज्ञानमां ज्यां आत्मस्वभावने पकड्यो त्यां विकारीभावोनुं कर्तापणुं छूटी जाय छे–
विराम पामे छे, ते अकर्तृत्वशक्तिनुं निर्मळ परिणमन छे. शुभ–अशुभ समस्त परिणामो आत्माना
ज्ञायकभावथी जुदा छे, तेथी पर्यायनुं वलण ज्यां ज्ञायकस्वभाव तरफ वळ्युं त्यां तेमां ज्ञातापणुं ज रह्युं ने
शुभ–अशुभ परिणामनुं कर्तापणुं त्यां उपरम पाम्युं–छूटी गयुं. आ रीते ज्ञानमात्रभावमां विकारने न करे एवुं
अकर्तृत्वशक्तिनुं परिणमन पण छे. अहीं विकारना अकर्तापणानी अपेक्षाए अकर्तृत्वशक्ति बतावी छे, ने ४२
मी कर्तृत्वशक्ति कहीने त्यां निर्मळपर्यायनुं कर्तापणुं बतावशे. पोतानी पर्यायना छए कारणरूपे आत्मा पोते ज
परिणमे छे–एवी तेनी शक्ति छे तेनुं वर्णन आगळ जतां आवशे.
करायेला नथी पण कर्मथी करायेला छे’ –एम माननारनी द्रष्टि क्यां पडी छे? एनी द्रष्टि तो पोताना
ज्ञातास्वभाव उपर पडी छे. साधकजीव ज्ञातास्वभावनी द्रष्टिना बळे निर्दोषतारूपे ज परिणमे छे एटले तेने
मिथ्यात्वादि अशुद्ध–परिणामनुं तो कर्तृत्व रह्युं ज नथी, ने जे अल्प रागादिभाव थाय छे तेनी मुख्यता नथी,–
तेने ज्ञायक भावथी भिन्न जाण्या छे तेथी तेनुं पण अकर्तापणुं ज छे; ए रीते विकारी भावोने कर्मकृत कह्या छे.
आवुं अकर्तापणुं समजनार साधकजीव पर्यायमां पण अकर्तापणे परिणम्यो छे, तेनी आ वात छे. परंतु जे जीव
विकारथी भिन्न एवा ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि तो करतो नथी, विकारथी लाभ मानीने तेनुं कर्तृत्व तो छोडतो
नथी, एवुं ने एवुं मिथ्यात्व सेव्या करे छे अने कहे छे के “विकार तो कर्मनुं कार्य छे–एम शास्त्रमां कह्युं छे” –तो
ते जीव शास्त्रनुं नाम लईने मात्र पोतानो स्वच्छंद ज पोषे छे, आत्मानी अकर्तृत्वशक्ति तेनी प्रतीतमां आवी
ज नथी; केम के अकर्तृत्वशक्तिने स्वीकारे तो पर्यायमां मिथ्यात्वादिनुं कर्तृत्व रहे ज नहि, एटले के तेना
मिथ्यात्वादि भावो उपराम पामी जाय.
अकर्तापणुं थई जाय छे. मिथ्यात्वभाव थाय छे ने तेनो अकर्ता छे–एम नहि, परंतु मिथ्यात्वभाव तेने थतो ज