Atmadharma magazine - Ank 155
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: १९८ : ‘आत्मधर्म’ : भादरवो : २४८२
नथी; अने अस्थिरतानो जे अल्पराग रहे छे तेनो श्रद्धामां स्वीकार नथी माटे तेनो पण अकर्ता छे. अज्ञानी
जीव पोताना अकर्तास्वभावने भूलीने, पर्यायनी ऊंधाईथी विकारना कर्तापणे परिणमे छे; परनुं कर्तापणुं तो
अज्ञानीने पण नथी. परथी तो आत्मा अत्यंत जुदो छे एटले तेनुं तो कर्तापणुं छे ज नहि, तेथी परना
अकर्तापणानी वात अहीं नथी लीधी. पण, अज्ञानदशामां विकारनुं कर्तापणुं छे तेथी ज्ञायकस्वभाव बतावीने ते
विकारनुं अकर्तापणुं आचार्यदेव समजावे छे. भाई, तारो आत्मा ज्ञायकस्वभावथी भरेलो छे, ते कांई विकारथी
भरेलो नथी, विकार तो तेनाथी बहार छे, माटे विकारना अकर्तारूप तारो स्वभाव छे. –एम तुं समज! आवी
अकर्ता–शक्तिने जे समजे ते विकारनो कर्ता केम थाय? –क्षणिक विकारने ज आत्मा ते केम माने? विकारथी
छूटीने तेनी पर्याय शुद्धज्ञायकस्वभाव तरफ वळी जाय छे. अहो! ज्ञायकस्वभाव तरफ वळतां ज्ञाता परिणाम
थई गया–ते आ शक्तिनी ओळखाणनुं फळ छे.
स्वभावद्रष्टिमां रहेतां ज्ञातापणे ज परिणमे छे, अल्प विकार कह्यो तेना पण ज्ञातापणे ज परिणमे छे,
कर्तापणे परिणमता नथी, तेथी तेने टाळवानी पण आकुळता धर्मीने नथी, स्वभाव तरफना वेदननी मुख्यतामां
तेने समता अने शांति छे, विकारथी उपराम पामीने ते आत्मा उपशांत थई गयो छे. “अहो, हुं तो
ज्ञानस्वभावी आत्मा छुं, मारा ज्ञानमां परनुं के विकारनुं कर्तृत्व नथी, मारा कर्तृत्व विना ज जगतना कार्यो थई
रह्या छे, मारा ज्ञाता परिणाम रागना पण कर्ता नथी, मारा ज्ञायकभाव सिवाय सर्वत्र मारे अकर्तापणुं ज छे”
–ए प्रमाणे धर्मी जीव पोतानी अकर्तृत्वशक्तिने निर्मळपणे उल्लसावे छे. ज्ञायकस्वभावी आत्मानी
अकर्तृत्वशक्ति एवी छे के तेनो स्वभाव कदी पण रागना कर्तापणे परिणमतो ज नथी, अने आवा स्वभाव
तरफ झूकेली पर्याय पण रागना अकर्तापणे परिणमी गई छे. आत्माना आवा स्वभावने ओळख्या वगर
रागादि विकारनुं कर्तापणुं टके नहि, एटले के धर्म थाय नहीं. लोको कहे छे के ‘निवृत्ति ल्यो...’ –पण क्यांथी
निवृत्ति लेवी छे? परथी तो आत्मा जुदो ज होवाथी तेनाथी तो आत्मा निवर्तेलो ज छे; अनादिथी क्षणे क्षणे
विकारनुं पोतानुं स्वरूप मानीने तेमां प्रवर्ती रह्यो छे, तेनाथी निवर्तवानुं छे. तेनी निवृत्ति केम थाय? –के
आत्मानुं ज्ञायकस्वरूप विकारथी त्रिकाळ निवृत्त ज छे एवा स्वभावने ओळखीने तेमां जे पर्याय वळी ते पर्याय
विकारथी निवृत्त थई जाय छे. विकारथी निवृत्त एवा ज्ञायकस्वभावनुं अवलंबन करतां करतां साधकने
पर्यायमां निवृत्ति वधती जाय छे, क्षणे क्षणे वीतरागता वधतां वधतां तेने रागनुं साक्षात् अकर्तापणुं थई जाय
छे. आ रीते अनेकान्तस्वरूप आत्माने ओळखतां मुक्ति थाय छे.
वस्तुना अनेकान्तस्वरूपने भूलीने एकांतमार्गे चडी गयेला अज्ञानी जीवने आत्मानी शक्तिओनी
ओळखाण द्वारा अनेकान्तमय आत्मस्वरूप बतावीने मोक्षमार्गे लई जाय छे. अरे जीव! तारा आत्मामां
ज्ञाननी सहचारिणी अनंतशक्तिओ एक साथे छे, अनंतशक्तिथी भरेला तारा ज्ञानमूर्ति आत्माने श्रद्धा–
ज्ञानमां ले तो पर्यायमां अनंत शक्तिनुं निर्मळ परिणमन थतां थतां मुक्ति थाय; ने विकार साथे एकपणानी
तारी एकांतबुद्धि छूटी जाय.
त्रिकाळी चैतन्यस्वरूप आत्मानो स्वभाव ज्ञान–दर्शन–आनंद छे, विकार करवानो तेनो स्वभाव नथी,
तेथी समस्त विकारीभावोने कर्मथी करवामां आवेला कहीने ज्ञायकस्वभावमां तेनुं अकर्तापणुं बताव्युं छे, ए
रीते शुद्ध ज्ञायकआत्मानी द्रष्टि करावी छे. जे जीव शुद्ध ज्ञायक–आत्मानी द्रष्टि करे तेने ज आ अकर्तृत्व वगेरे
शक्तिओनुं खरुं स्वरूप समजाय छे. जेवी शुद्ध शक्ति छे तेवो नमूनो पर्यायमां आवे तो ज शक्तिनी साची
ओळखाण थई छे.
पर्यायमां विकारीभाव जीव पोते करे छे, कांई कर्मो नथी करावतुं; परंतु जेनी द्रष्टि शुद्धआत्मा उपर छे ते
शुद्धआत्माथी विरुद्ध एवा विकारीभावनो कर्ता थतो नथी; जेनी द्रष्टि शुद्धआत्मा उपर नथी पण कर्म उपर ज
जेनी द्रष्टि छे ते ज विकारमां एकत्वबुद्धि वडे तेनो कर्ता थाय छे. कर्मनी द्रष्टिमां ज ते विकारनुं कर्तापणुं छे माटे
तेने कर्मकृत कह्या. स्वभावद्रष्टिमां तेनुं कर्तापणुं नथी माटे स्वभावद्रष्टिवाळो आत्मा तेनो अकर्ता ज छे.