Atmadharma magazine - Ank 155
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४८२ ‘आत्मधर्म’ : १९९ :
अहीं सम्यग्द्रष्टिना विषयभूत–ध्येयभूत शुद्धआत्मा बताववो छे, एटले निर्मळपर्याय तो तेमां अभेदपणे आवी
जाय, पण मलिनपर्याय तेमां न आवे. शुद्ध आत्मानी द्रष्टिमां मलिनता नथी तेथी ते द्रष्टिमां मलिनतानो
कर्मकृत ज कहेवाय छे.
हे भाई! तुं कोण छो? तेनी आ वात छे. तुं आत्मा छो, तो केटलो छो ने केवो छो? तुं त्रिकाळ छो,
तारी अनंतशक्ति अने तेनी निर्मळपर्यायो जेटलो तुं छो; विकारने उपजावे एवो तुं नथी. तारा आत्मानी
अनंती शक्तिमां एवी एकपण शक्ति नथी के जे विकारने करे. अज्ञानी कहे छे के “आपणने आत्मा समजाय
नहि, आपणे तो पुण्य कर्या करशुं ने संसारना सुख भोगव्या करशुं!” –तेने ज्ञानी कहे छे के अरे मूढ! पुण्य
करवानो आत्मानो स्वभाव ज नथी. आत्मानो अनादर करीने तुं पुण्यना फळ भोगववानी मीठास करी रह्यो
छे तेमां तो अनंता पापनां मूळियां पड्यां छे. जो विकार करवानो आत्मानो स्वभाव होय तो तो विकारथी
तेनो छूटकारो कदी थाय ज नहि, एटले मुक्ति कदी थाय ज नहि. विकारनुं कर्तृत्व माननार, ने ज्ञायकस्वभावने
नहि जाणनार कदी मुक्ति पामतो नथी.
जेम लोढामां जराक उपर–उपर काट छे पण अंदरना भागमां काट नथी, –एम बंने प्रकारने जाणीने काट
उखेडवा प्रयत्न करे छे; तेम आत्मामां क्षणिक पर्यायमां विकाररूपी जराक काट छे, पण तेना अंदरना असली
स्वभावमां ते विकार नथी, विकार वगरनो शुद्ध स्वभाव त्रिकाळ छे–एम बंने पडखां जाणीने शुद्धद्रव्य तरफनुं
जोर करतां पर्यायमांथी विकार टळी जाय छे, ने शुद्धता प्रगटे छे. जे जीव आत्माना शुद्ध स्वभाव उपर जोर नथी
आपतो, ने पुण्य उपर जोर आपे छे ते विकार करवानो ज आत्मानो स्वभाव माने छे, एटले विकारना
अकर्तापणारूप आत्मानी शक्तिनो ते अनादर करे छे; आत्माना अनादरनुं फळ अनंत संसारमां परिभ्रमण छे,
अने आत्मस्वभावनी आराधनानुं फळ मुक्ति छे. अरे जीव! हवे तारे तारा शुद्धआत्मानी प्रत्ये होंश करवी छे
के पुण्य–पाप प्रत्ये? अनादिथी विकार प्रत्ये होंश करी करीने तो तुं संसारमां रखडयो, हवे जो तारे संसारथी
मुक्त थवुं होय तो तारा शुद्धआत्मानी होंश कर! अहो! मारो आत्मस्वभाव कदी विकाररूपे थई गयो नथी,
अनंत शक्तिनी शुद्धतामां कदी विकार पेठो नथी, माटे विकार ते मारुं कर्तव्य नथी, हुं तो ज्ञायकभाव मात्र ज छुं.
–एम स्वभावनी होंश लावीने ते तरफ वळ अने विकारना कर्तृत्वथी हवे विराम पाम! शुभ के अशुभ समस्त
विकारी परिणामो तारा ज्ञायकभावथी जुदा छे, तेने करवानी तारी फरज नथी, पण ज्ञायकपणे रहीने ते
विकारनो अकर्ता थवानी तारी फरज छे. फरज एटले स्वभाव. जेना अंर्तअवलंबने विकारने छेदीने मुक्ति
थाय एवो तारो स्वभाव छे ने ते ज तारी फरज छे. रागने जे पोतानी फरज मने ते रागने छेदीने मुक्ति
क्यांथी पामशे?
जुओ, आ एकलाख–चोत्रीस हजार रूा. नो ‘कुंदकुंद–प्रवचन मंडप’ थयो के सवालाखनो मानस्तंभ
थयो, ते कोणे कर्यो? शुं आत्माए ते कर्यो? ना; आत्मा तो तेनो अकर्ता छे, अज्ञानीनो आत्मा पण तेनो तो
अकर्ता ज छे; कडिया वगेरे कारीगरोनो आत्मा पण तेनो कर्ता नथी. अने ते तरफनो धर्मीने शुभराग थाय ते
रागना पण धर्मी अकर्ता छे, केमके धर्मी तो ज्ञायकस्वभावने एकने ज पोतानुं स्व माने छे, ने ते स्वभावनी
द्रष्टिमां तेने विकारनुं कर्तापणुं नथी. विकारनी उत्पत्ति करवानो आत्मानो स्वभाव नथी पण तेनो अंत
लाववानो स्वभाव छे; पुण्य–पापनी प्रवृत्तिथी निवृत्तरूप आत्मस्वभाव छे. आवा अकर्तृत्वस्वभावने जे नथी
जाणतो तेने अकर्तृत्वशक्तिनुं विपरीत परिणमन थाय छे एटले ते विकारनो कर्ता थाय छे.
प्रश्न:– अमे तो विषय–कषायमां डुबेला छीए तेथी देव–गुरु–शास्त्र तरफनो भाव करीए तो अमारुं
कंईक हित थाय.
उत्तर:– भाई, एवा लक्षथी तने अशुभ टळीने शुभ तो थशे, एनी ना नथी; परंतु तारा आत्मामां ते
शुभनुं ज कर्तृत्व मानीने जो त्यां ज अटकी जईश तो तने आत्मानी प्राप्ति नहि थाय, एटले के धर्म के कल्याण