जाय, पण मलिनपर्याय तेमां न आवे. शुद्ध आत्मानी द्रष्टिमां मलिनता नथी तेथी ते द्रष्टिमां मलिनतानो
कर्मकृत ज कहेवाय छे.
अनंती शक्तिमां एवी एकपण शक्ति नथी के जे विकारने करे. अज्ञानी कहे छे के “आपणने आत्मा समजाय
नहि, आपणे तो पुण्य कर्या करशुं ने संसारना सुख भोगव्या करशुं!” –तेने ज्ञानी कहे छे के अरे मूढ! पुण्य
करवानो आत्मानो स्वभाव ज नथी. आत्मानो अनादर करीने तुं पुण्यना फळ भोगववानी मीठास करी रह्यो
छे तेमां तो अनंता पापनां मूळियां पड्यां छे. जो विकार करवानो आत्मानो स्वभाव होय तो तो विकारथी
तेनो छूटकारो कदी थाय ज नहि, एटले मुक्ति कदी थाय ज नहि. विकारनुं कर्तृत्व माननार, ने ज्ञायकस्वभावने
नहि जाणनार कदी मुक्ति पामतो नथी.
स्वभावमां ते विकार नथी, विकार वगरनो शुद्ध स्वभाव त्रिकाळ छे–एम बंने पडखां जाणीने शुद्धद्रव्य तरफनुं
जोर करतां पर्यायमांथी विकार टळी जाय छे, ने शुद्धता प्रगटे छे. जे जीव आत्माना शुद्ध स्वभाव उपर जोर नथी
आपतो, ने पुण्य उपर जोर आपे छे ते विकार करवानो ज आत्मानो स्वभाव माने छे, एटले विकारना
अकर्तापणारूप आत्मानी शक्तिनो ते अनादर करे छे; आत्माना अनादरनुं फळ अनंत संसारमां परिभ्रमण छे,
अने आत्मस्वभावनी आराधनानुं फळ मुक्ति छे. अरे जीव! हवे तारे तारा शुद्धआत्मानी प्रत्ये होंश करवी छे
के पुण्य–पाप प्रत्ये? अनादिथी विकार प्रत्ये होंश करी करीने तो तुं संसारमां रखडयो, हवे जो तारे संसारथी
मुक्त थवुं होय तो तारा शुद्धआत्मानी होंश कर! अहो! मारो आत्मस्वभाव कदी विकाररूपे थई गयो नथी,
अनंत शक्तिनी शुद्धतामां कदी विकार पेठो नथी, माटे विकार ते मारुं कर्तव्य नथी, हुं तो ज्ञायकभाव मात्र ज छुं.
–एम स्वभावनी होंश लावीने ते तरफ वळ अने विकारना कर्तृत्वथी हवे विराम पाम! शुभ के अशुभ समस्त
विकारी परिणामो तारा ज्ञायकभावथी जुदा छे, तेने करवानी तारी फरज नथी, पण ज्ञायकपणे रहीने ते
विकारनो अकर्ता थवानी तारी फरज छे. फरज एटले स्वभाव. जेना अंर्तअवलंबने विकारने छेदीने मुक्ति
थाय एवो तारो स्वभाव छे ने ते ज तारी फरज छे. रागने जे पोतानी फरज मने ते रागने छेदीने मुक्ति
क्यांथी पामशे?
अकर्ता ज छे; कडिया वगेरे कारीगरोनो आत्मा पण तेनो कर्ता नथी. अने ते तरफनो धर्मीने शुभराग थाय ते
रागना पण धर्मी अकर्ता छे, केमके धर्मी तो ज्ञायकस्वभावने एकने ज पोतानुं स्व माने छे, ने ते स्वभावनी
द्रष्टिमां तेने विकारनुं कर्तापणुं नथी. विकारनी उत्पत्ति करवानो आत्मानो स्वभाव नथी पण तेनो अंत
लाववानो स्वभाव छे; पुण्य–पापनी प्रवृत्तिथी निवृत्तरूप आत्मस्वभाव छे. आवा अकर्तृत्वस्वभावने जे नथी
जाणतो तेने अकर्तृत्वशक्तिनुं विपरीत परिणमन थाय छे एटले ते विकारनो कर्ता थाय छे.