Atmadharma magazine - Ank 156
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४८२ आत्मधर्म (‘ब्रह्मचर्य अंक’–बीजो.) : २२३ :
त्यां आनंदनां झरणां झरे छे

अरे जीव! बाह्यविषयो तो मृगजळ जेवा छे, तेमां क्यांय तारी शांतिनुं झरणुं
नथी. अनंतकाळथी ते बाह्य विषयोमां झांवा नांख्या छतां तने शांति न थई,––तृप्ति
न थई, माटे तेमां शांति नथी एम समजीने हवे तो तेनाथी पाछो वळ.... ने
चैतन्यस्वरूपमां अंतर्मुख था! चैतन्य सन्मुख थतां क्षणमात्रमां तने शांतिनुं वेदन
थशे ने... ए शांतिना झरणामां तारो आत्मा तृप्त–तृप्त थई जशे.
वीतरागी पर्युषणपर्वनी शरूआत
ब्रह्मस्वरूप आत्माने प्राप्त करवानी पात्रता
उत्तमक्षमाधर्मना दिवसे, १४ बेनोए ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा अंगीकार
करी ते प्रसंगे पू. गुरुदेवना अध्यात्मरसझरता वैराग्यभर्या
प्रवचनमांथी चूंटेला १४ रत्नो
१.
जैनशासनमां खरा पर्युषण पर्वनी आजे शरूआत थाय छे. दसलक्षणीधर्ममां आजे उत्तमक्षमानो
दिवस छे; अने आपणे अहीं आजे चौद बेनो–दीकरीओ ब्रह्मचर्यनी बाधा ल्ये छे; ए रीते आजे मंगळप्रसंग
छे. अने आ समयसारनी ९५ मी गाथा वंचाय छे तेमां पण आत्माना हितनी महामंगळ वात छे.
२.
आ देहमां रहेलो आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप छे, ते पोते ज शक्तिरूपे भगवान छे. भगवानपणुं एटले
के परिपूर्ण ज्ञान अने आनंदपणुं क्यांय बहारथी नथी आवतुं, पण पोताना स्वभावमां ज तेवुं सामर्थ्य छे
तेमांथी ज ते व्यक्त थाय छे. पोताना आवा स्वभावसामर्थ्यनी श्रद्धा अने एकाग्रता करीने अतीन्द्रिय आनंदना
वेदनमां एवो लीन थाय के जगतनी कोई प्रतिकूळतामां द्वेष के अनुकूळतामां रागनी वृत्ति ज न थाय, वीतरागी
आनंदना वेदनमां वच्चे क्रोधादि भावोनी उत्पत्ति ज न थाय,––तेनुं नाम उत्तमक्षमादि धर्म छे. आवा वीतरागी
धर्मनी विशेष उपासनाना दिवसो आजे शरू थाय छे.
३.
भगवान! आ शरीर तो धूळनुं ढींगलुं छे, तेमां क्यांय आत्मानुं सुख नथी.... तेना उपरथी द्रष्टि
हठावीने, चैतन्यस्वभावमां एकाग्र थतां अंदरथी शांतिनुं एक झरणुं आवे छे. जीव जे शांति लेवा मांगे छे ते
कोई संयोगोमांथी