: २२४ : आत्मधर्म (‘ब्रह्मचर्य अंक’–बीजो.) २४८२ : आसो :
गोमांथी नथी आवती पण पोताना स्वभावमांथी ज आवे छे.
“मारो आत्मा स्वत: आनंद अने ज्ञानथी परिपूर्ण छे; मारुं ज्ञान के आनंद आ अचेतन शरीरमां नथी;
आ देह जाय के कटका थाय, लाखो वर्ष रहे के आजे ज छूटी जाय, पण ते जड छे, तेनामां मारो अधिकार नथी,
ने तेने आधीन मारुं सुख नथी,”–आवा भानपूर्वक अंतर्मुख थईने स्वभावमां एकाग्र थता अंदरथी अतीन्द्रिय
शांतिनुं एक एवुं झरणुं आवे........के देह उपर गमे तेवी प्रतिकूळताना परीषहो होय तोपण अंदर राग–द्वेषरूप
अशांति उत्पन्न न थाय,–एनुं नाम धर्म छे. बहिरलक्षे राग–द्वेषना भावो उत्पन्न थाय ते आत्मानुं स्वरूप नथी;
आत्मस्वरूपमां अंतर्मुख थतां वीतरागी शांतभाव उत्पन्न थाय.......आनंदना झरणां झरे.........ते आत्मानुं
स्वरूप छे ने ते ज धर्म छे. परनी ने विकारनी उपेक्षा करीने चिदानंदस्वरूप आत्मानी सन्मुख थवाथी उत्तमक्षमा
वगेरे धर्मनी आराधना थाय छे.
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४.
भगवान! तुं तो चैतन्यमूर्ति......ने आ शरीर तो धूळनुं ढींगलुं!....तेनामां तारुं सुख केम होय?
आ शरीरनी रोग–नीरोग अवस्था तारे आधीन नथी, माटे तेनी तो उपेक्षा कर, तेनाथी उपेक्षित थईने
स्वभावनी अपेक्षा कर; अर्थात् देहद्रष्टि छोडीने चैतन्यस्वभावने द्रष्टिमां ले; आत्मा सिवाय कोई पण चीज
मारी नथी–एम द्रष्टिने पर तरफथी हठावीने चैतन्यस्वभावमां जोडवी ते धर्मनो मूळ पायो छे.
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५.
चैतन्यस्वभावने चूकीने विभावनी के संयोगनी रुचि करवी ते मोटो क्रोध छे. भले मंदकषायथी कोई
जीव क्षमावान अने शांत देखातो होय, कोई निंदा के उपसर्ग करे छतां तेना उपर क्रोध करतो न होय, परंतु
अंदरमां जो एवी बुद्धि छे के ‘ आ मंदकषायना परिणाम के पांच ईन्द्रियना विषयो आत्माने सुखनुं कारण छे’–
तो ते जीव विषय–कषायोथी पार एवा चैतन्यस्वभावनो अनादर करे छे; अतीन्द्रिय–शांत चैतन्यनो अनादर
करीने ते विषय–कषायमां ज डुबेलो छे; तेने उत्तमक्षमादि वीतरागीधर्मनी खबर नथी.
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६.
हे भाई! आत्मामां अंतर्मुख थवानी आ रीत तो सांभळ! गमे त्यारे पण आत्मामां अंतर्मुख थये
ज कल्याण छे, ए सिवाय बहिर्मुख वलणमां क्यांय कल्याण नथी. शरीरने साचववानी मान्यता के ईन्द्रिय–
विषयोमांथी सुख लेवानी बुद्धि ते चैतन्यस्वभावथी तद्न विरुद्ध छे. अनंत अनंतकाळ बाह्यविषयोमां भटक्यो
छतां तेमां क्यांय जीवने शांति न मळी....ने तृप्ति न थई, माटे बाह्यविषयोमां क्यांय सुख छे ज नहि–एम
निर्णय करीने हे जीव! तुं अंतरमां वळ! आ अंतर्मुख थवानी रीत संतो बतावे छे. चिदानंदस्वभावना
श्रद्धाज्ञान करीने पछी तेमां ज अंतर्मुख थईने ज्यां आनंदना वेदनमां लीन थयो त्यां बहारमां लाखो प्रतिकूळ
प्रसंगो बने तो पण क्रोध थतो नथी, तेनुं नाम वीतरागी क्षमा छे.
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७.
हुं आनंदकंद....सच्चिदानंद....अनादिअनंत आत्मा छुं–एम स्वभावनी प्रतीत अने स्वसंवेदन थतां
धर्मनी शरूआत थई; पछी तेमां एवी लीनता थाय के–
‘बहु उपसर्ग कर्ता प्रत्ये पण क्रोध नहीं,
वंदे चक्री तथापि न मळे मान जो;
देह जाय पण माया थाय न रोममां
लोभ नहीं छो प्रबळ सिद्धि निदान जो...’
–आवी स्थितिनुं नाम मुनिदशा छे.......त्यां आत्मामांथी आनंदनां झरणां झरे छे.
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८.
बहारमां गमे तेवा प्रतिकूळ प्रसंग हो के अनुकूळ प्रसंग हो, ते माराथी भिन्न छे, मारा ज्ञानना ज्ञेय
छे, परंतु मने सुख–दुःखना दातार नथी. पर संयोगोने ईष्ट–अनिष्ट मानवा तेमां तो मिथ्या मान्यतानुं महान
असत्य छे ने ते महापाप छे. पहेलांं ते मान्यता सुधार्या वगर कदी पण चारित्रधर्म थाय नहि. जेम जमीन
वगर आकाशमां बीज ऊगता नथी, तेम भगवान