Atmadharma magazine - Ank 156
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 14 of 41

background image
: आसो : २४८२ आत्मधर्म (‘ब्रह्मचर्य अंक’–बीजो.) : २२५ :
आत्मा परिपूर्ण चैतन्यस्वरूप छे–तेनी सम्यक्श्रद्धारूपी भूमिका वगर वीतरागीचारित्रनां वृक्ष ऊगता नथी.
सम्यग्दर्शन ज धर्मनुं मूळ छे.
९.
भाई! पहेलांं तो आटलो तो विचार कर के ‘हुं जे शांति लेवा मागुं छुं ते मारामां होय के माराथी
बहार होय?’ तुं जे शांति लेवा मांगे छे ते तारामां ज छे, बहारमां नथी. अज्ञानने लीधे पोताने भूलीने
पोतानी शांति माटे बहार व्यर्थ फांफां मारे छे. जेम पोतानी डूंटीमां ज रहेली कस्तुरीने भूलीने मृगलुं सुगंध
शोधवा बहारमां दोडे छे. अथवा मृगजळने पाणी मानीने त्यां दोडे छे, तेम पोताना स्वरूपमां ज रहेली शांतिने
भूलीने अज्ञानी जीव बहारमां शांति शोधे छे, बाह्यविषयोमां शांति माटे झांवा नांखे छे, पण अरे जीव! ए
विषयो तो मृगजळ जेवा छे, तेमां क्यांय तारी शांतिनुं झरणुं नथी. अनंतकाळथी तें बाह्यविषयोमां झांवा
नांख्या छतां तने शांति न थई–तृप्ति न थई, माटे तेमां शांति नथी एम समजीने हवे तो तेनाथी पाछो वळ!
ने चैतन्यस्वरूपमां अंतर्मुख था! चैतन्यसन्मुख थतां क्षणमात्रमां तने शांतिनुं वेदन थशे, ने ए शांतिना
झरणामां तारो आत्मा तृप्त..........तृप्त थई जशे.
१०.
जुओ, आजे वीतरागी पर्युषणनी शरूआत थाय छे. पर्युषण कहो के आत्मानी शांतिनो राह
कहो. हुं जे शांति लेवा मांगुं छुं ते कोई संयोगोमां नथी, रागमां नथी, पण मारा स्वभावमां ज छे–एम द्रढ
विश्वास करीने, अंतमुर्ख थईने, सम्यक्श्रद्धामां ज्ञानमां अने चारित्रमां आत्माने ज वसाववो.....एटले के श्रद्धा–
ज्ञान–चारित्र त्रणेने अंतरमां वाळीने आत्मस्वभावमां जोडवा ते पर्युषणपर्वनी खरी उपासना छे; ने तेमां
आत्मामांथी शांतिनां झरणां वहे छे.
११.
अहो! आवा तारा स्वभावनी वात सांभळीने एकवार प्रभु! हा तो पाड! आ ज हितनो उपाय
छे ने आ ज मारे करवा जेवुं छे–एम एक वार निर्णय तो कर! वीतरागी संतोए अनुभवेली आ वात छे.
आत्माना आनंद–स्वभावनुं वर्णन सांभळतां जेनो आत्मा उललासथी ऊछळी गयो, तेने संसारना विषयोमां
सुखबुद्धि रहेती नथी, तेने चैतन्य सिवाय बाह्यविषयो अत्यंत तूच्छ लागे छे; अने अंतर्मुख थईने ते जरूर
आत्माना आनंदने प्राप्त करे छे.
१२.
प्रभो! एक वार तारा ज्ञानस्वरूप आत्मानो विश्वास कर. परमां सुख मानीने, भगवान! तुं
भूल्यो....... जेम भ्रमणाथी कोई माताने स्त्री मानी बेसे ने खोटी वासना थाय, पण ज्यां जाणे के ‘अरे! आ
तो मारी माता!! मारी जनेता!’–त्यां ते वासना छूटी जाय छे ने शरमाई जाय छे. तेम पोताना चैतन्यस्वरूपने
चूकीने भ्रमणाथी परमां सुख मान्युं, पण ज्यां भूल भांगीने भान कर्युं के ‘हुं तो परथी जुदो चैतन्यस्वभावी
छुं, मारुं सुख परमां नथी, मारुं सुख तो मारामां ज छे..... अत्यार सुधी परमां सुख मानीने हुं भूल्यो’–त्यां
पछी स्वप्नेय परमां सुखबुद्धि थती नथी, तेनी वृत्तिनो वेग विषयो तरफथी पाछो वळीने स्वभाव तरफ वळी
जाय छे. त्यां वीतरागी देव–गुरुनुं बहुमान, तृष्णानो घटाडो ने ब्रह्मचर्यनो रंग वगेरे तो सहेजे होय ज.
१३.
जुओ, आजे १४ बेनो ब्रह्मचर्यनी प्रतिज्ञा ल्ये छे, सात वर्ष पहेलांं बीजा छ बेनोए पण
प्रतिज्ञा लीधी हती. बधाय बहेनो कुंवारा छे. पुरुष करतां स्त्रीओने शरीरनी पराधीनता छे, छतां आ बेनो
प्रतिज्ञा करे छे ते घणी हिंमत करे छे. साधारण माणसो–जेओ वृत्तिनो वेग वाळी शकता नथी–तेमनां तो हृदय
हली जाय एवुं छे.
ब्रह्मस्वरूपमां आत्ममां चर्या करवी ते खरुं ब्रह्मचर्य छे. ब्रह्म एटले आनंदस्वरूप आत्मा, तेमां चरवुं–
रमवुं–एकाग्र थवुं ते ब्रह्मचर्य छे. अने आवा लक्षपूर्वक आगळ वधवा माटे ब्रह्मचर्य वगेरेनो रंग होय तेने
पात्रता गणाय छे. ब्रह्मस्वरूप–आनंदस्वरूप आत्माने चूकीने परमां