Atmadharma magazine - Ank 156
(Year 13 - Vir Nirvana Samvat 2482, A.D. 1956)
(Devanagari transliteration).

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: २४२ : आत्मधर्म (‘ब्रह्मचर्य अंक’–बीजो.) २४८२ : आसो :
नीकटछायामां रहेतां हरक्षणे ज्ञान–वैराग्यना संस्कारोनुं सींचन सहेजे सहेजे थया करे छे. आ उपरांत
आश्रमवासी बहेनो पण परस्पर वात्सल्यपूर्वक हळीमळीने स्वाध्याय–भक्ति आदि कार्यो करे छे. कुटुंब
छोडीने बहारगामथी अहीं आवीने रहेनारा बहेनोने पण एवुं नथी लागतुं के अमे एकला
छीए.....संतोनी मधुरी छायामां साधर्मीओनुं एक नवुं ज कुटुंब अहीं रचाई गयुं छे.
भारतभरमां आश्रमो तो अनेक चालता हशे......परंतु संतोथी सीधी छायामां... अध्यात्मना
उपशांत वातावरणमां...वात्सल्यना वहेता झरणामां...चालतो आवा प्रकारनो आश्रम तो आ एक ज छे.
मुलाकात माटे बहारथी आवनारा माणसो पण, आश्रममां प्रवेश करतां ज त्यांना शांतिमय
वातावरणथी अंजाई जाय छे.
आश्रमवासी बहेनो पोतपोतानी आजीविका पोताना खर्चे ज चलावी ले छे....अने पू. बेनश्रीबेन
हस्तक खानगी सहाय खातुं पण चाले छे. आश्रमना उद्घाटन प्रसंगे श्री वछराजजी शेठे रूा. २५००१/–
आश्रमने माटे जाहेर कर्या छे..... ते उपरांत बीजुं पण केटलुंक फंड छे. हाल आश्रममां कोई वधारे रूम
खाली नथी.
सामान्यपणे आ आश्रमनो एक नियमित कार्यक्रम घडवामां आव्यो छे. आ कार्यक्रम उपरांत
आहार–विहार वगेरे बाबतमां पण योग्य नियमोनुं पालन करवामां आवे छे; ने आश्रमवासी बेनो
संतोनी छायामां हर्षोल्लासपूर्वक जीवन वीतावे छे.
परमपूज्य गुरुदेवना महान प्रतापे स्थापायेल आ आश्रम सदाय वृद्धिगत हो......ने आश्रमवासी
साधर्मी बहेनो संतोनी पवित्र छायामा आत्मलाभ पामो.
ज्ञान भावना वैराग्यभावना
मैं परमेष्ठी पंच ध्यावुं,
श्रुतदेवी माता भावुं;
मैं सब संतन के चरणों
बलि बलि जावुं रे........
मैं सम्यक्दर्शन भावुं,
अरु ज्ञान–चरित्र मिलावुं
वरदान प्रभुसे पाकर
प्रभु सम थाउं रे........
मैं मुक्ति के पथ धावुं,
सिंहनाद से कर्म हटावुं,
गुरु कहान की बंसी सुनकर
डगमग डोलुं रे........
[जिनेन्द्र भजनमाळा पा. ५७]
तोरण पर जब आईया ये मांय,
सह्यो म्हारी! पशुवन सुणी पुकार.....
...पाछो ही रथ फेरियो ये मांय.....
तोडया छे कांकण दोरडा ये मांय.....
सह्यो म्हारी! तोडया छे नवसर हार,
दीक्षा उर धार लीनी है.....
संजम अब में धारस्युं हे मांय,
सह्यो म्हारी! जास्युं गढगीरनार,
करमफंद काटस्युं हे मांय.....
(जिनेन्द्र–भजनमाळा पा. ४१)