आत्महितना हेतुए जीवन गाळजो.....देव–गुरु–शास्त्र प्रत्ये भक्ति अने बहुमान वधारजो....अरसपरस
एकबीजानी बेनो हो–ए रीते वर्तजो....ने वैराग्यथी रहेजो....एमां शासननी शोभा छे. आत्मानुं कल्याण केम
थाय...ने ते माटे पू. गुरुदेव शुं कहे छे–तेनो विचार करवो....स्वाध्याय अने मनन वधारवुं. ब्रह्मचर्यप्रतिज्ञाने
लीधे आत्माना विचारने माटे निवृत्ति मळे छे एम पू. गुरुदेव वारंवार कहे छे, माटे निवृत्ति लईने स्वाध्याय–
मनन करवुं. आम तमारे तमारा जीवनमां आत्मानुं कल्याण करवानुं लक्ष राखवुं.
आ प्रसंग निमित्ते ‘आश्रम’ सुशोभित मंडप वगेरे शणगारथी शोभतो हतो....ने त्यां आखो दिवस
बेनो तरफथी आहारदान माटे विनंति थतां भादरवा सुद छट्ठना रोज पू. गुरुदेवे आश्रममां पधारीने भोजन
कर्युं हतुं. आ रीते पू. गुरुदेव द्वारा थई रहेली अनेकविध प्रभावनानो आ एक महान प्रसंग ऊजवायो हतो.
वगर रही शकतुं नथी.
जीव पोताना आत्महितने माटे जेटलो लई शकाय तेटलो लाभ अवश्य ल्ये. विवेकीजनो आत्महितना
अवसरमां प्रमाद करता नथी.
आत्मस्वरूप शुं छे तेनो निर्णय करवानी धून जागवी जोईए......बधा न्यायोथी नक्की
एम ने एम उपर टपके जतुं न करी देवाय. अंदर मंथन करी करीने एवो द्रढ निर्णय करे के जगत
आखुं फरी जाय तोय पोताना निर्णयमां शंका न पडे. आत्माना स्वरूपनो आवो निर्णय करतां
वीर्यनो वेग तेना तरफ ज वळे छे. अंतरमां पुरुषार्थनी दिशा सूझी गई पछी तेने मार्गनी मुंझवण
थती नथी....पछी तो तेनी आत्मानी लगनी ज तेनो मार्ग करी ल्ये छे. आगळ शुं करवुं तेनो
पोताने ज ख्याल आवी जाय छे.....‘हवे मारे शुं करवुं’ एवी मुंझवण तेने थती नथी.